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________________ मूर्ख नर होते कोपपरायण ७३ लेने के बाद भी वह वहाँ खड़ा खड़ा मुँह हिलाता रहा । काफी देर तक उसकी चेष्टा देखने के बाद एक प्यासे यात्री ने कहा - " अबे मूरखचन्द ! हट न अब यहाँ से, दूसरों को भी पानी पीने देगा कि नहीं ? " यह सुन लक्ष्मीचन्द ने चकित होकर कहा - "लो हट जाता हूँ मैं, लेकिन यह तो बताइए जिस नाम को बदलवाने के लिए मैं सैकड़ों मील दूर चला आया, उसे आपने कैसे जान लिया ?" वह यात्री बोला - "यह तो मैंने तुम्हारे लक्षणों से ही जान लिया कि तुम मूरखचन्द ही हो । " लक्ष्मीचन्द ने समझ लिया कि लक्षण या स्वभाव बदले बिना केवल वेश या स्थान बदलने से कोई नाम नहीं बदल जाता । परन्तु लक्ष्मीचन्द को यह समझ कब आयी ? अपनी प्रवृत्ति कर लेने के बाद आयी न ? यही तो मूर्खता का लक्षण है । इसीलिए सुकवि 'अज्ञेय' ने मूर्ख के लक्षण बताए हैं बिना सोचे समझे ही करता जो काम सदा, अपना बिगाड़े काम जग को हँसावे है । पूरब को कहिये तो पश्चिम को चलता है, इसीलिए भले पुरुषों को नहीं भावे है ॥ घर फूँक अपना तमाशा दिखलाता जो कि, दर-दर खाक छान उमर स्वयमेव थूक कर स्वयमेव सुकवि 'अज्ञेय' वही मूरख वास्तव में मूर्ख प्रायः अपनी मूर्खता को नहीं अपनी मूर्खता को जान जाता है । यही मूर्ख और बुद्धिमान में अन्तर है । गँवावे है । चाटता जो, देख सकता । " कहावे है ॥ पाश्चात्य विद्वान थेकरे ( Thackeray ) ने सच ही कहा है "A fool can no more see his own folly than he can see his ears.' कानों को देख सकता है, उतना अपनी मूर्खता को नहीं "मूर्ख जितना अपने Jain Education International जान पाता, जबकि बुद्धिमान एक आदमी घास का गट्ठर वाँधकर उसे घोड़ी पर लादकर घर की ओर चल दिया । रास्ते में लोगों ने कहा - "घोड़ी गर्भवती मालूम होती है, इस पर बोझ लादना ठीक नहीं ।" यह सुनकर उसने गट्ठर का बोझ अपने सिर पर उठा लिया । आगे चला तो दूसरे गाँव वालों ने उसे देखकर कहा - "यह किसान कितना मूर्ख है । घोड़ी की पीठ खाली पड़ी है, फिर भी बोझ अपने सिर पर उठा रखा है ।" यह सुना तो मूर्ख किसान घास का गट्ठर सिर पर उठाए ही घोड़ी पर सवार हो गया । लोगों ने देखा तो किसान की मूर्खता पर हँसने लगे - " कैसा मूर्ख है, क्या घास का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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