SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूर्ख नर होते कोपपरायण ७१ उसकी बुद्धि पर मोह का ऐसा पर्दा पड़ जाता है कि वह दूरदर्शितापूर्वक सोच नहीं पाता, गहराई से उसके नतीजे पर विचार नहीं कर पाता, उतावला होकर काम बिगाड़ लेता है, हर किसी को अपने क्षुद्र और मूढ़तापूर्ण कार्यों से भड़का देता है, जिससे उसके प्रति किसी की सहानुभति नहीं जागती, उससे जो हित की बात कहने जाता है उससे भी वह उलझ जाता है, टोक देता है, प्रतिवाद करता है, किसी की हितकर बात भी सुनना नहीं चाहता। न तो उसका विचारों पर कन्ट्रोल होता है और न ही वाणी पर, तथा न ही किसी व्यवहार या कार्य पर उसका कन्ट्रोल होता है। वैताल कवि ने मूर्ख की पहचान दो छप्पयों में बता दी है बिन नौते घर जाय, बिन बतराए बोले । बिन मौके हँस देत, प्रयोजन बिन ही डोले ॥ बिना दिये सम्मान, जाय बैठे आगेरो । बैठे अंग भिड़ाय, फिरे फिर खावे फेरो॥ मारग चाले ‘खावतो, गुप्त बात चौड़े कहे । 'बेताल' कहे विक्रम ! सुनो मूरख छाना किम रहे ?॥१॥ बुद्धि बिन व्यापार, दृष्टि बिन यान चलावे । सुर बिन गावे गीत, लाभ बिन खर्च बढ़ावे ॥ बल बिन मांडे राड़, भूख बिन भोजन खावे । गुण बिन जाय विदेश, सुयश बिन आगे आवे ॥ अनहोनी इच्छा करे, बिना समझ की बात । 'वैताल' कहे विक्रम ! सुनो यह मूरख की बात ॥२॥ भावार्थ स्पष्ट है । निष्कर्ष यह है कि जिसका बोलना, चलना, उठना-बैठना, विचारना, खाना-पीना आदि सारी प्रवृत्तियाँ समझदारी की न हों, सभी ऊटपटांग हों, बुद्धिमान व्यक्ति के व्यवहार से ठीक विपरीत व्यवहार हो, जो अपनी बुद्धि, बल, दृष्टि, योग्यता, क्षमता, गुण, पद-प्रतिष्ठा आदि को समझे बिना तथा उसका मूल्यांकन किये बिना ही उनकी सीमा का अतिक्रमण करके कार्य करता हो, बह मूर्ख शिरोमणि है। एक उदाहरण लीजिए एक साहूकार के एक ही लड़का था, पर था वह पूरा मूर्ख, जड़बुद्धि । जब भी पिता किसी से बात करता तो वह बीच-बीच में बोलता रहता। पिता ने समझाया"बेटा ! बड़ों के बीच में या सामने नहीं बोलना चाहिए।" दूसरे दिन ही माता-पिता को किसी कार्यवश कहीं बाहर जाना पड़ा। पीछे घर में लड़का अकेला ही था। वह घर का दरवाजा बन्द करके अन्दर बैठ गया। चार घन्टे बाद पिता वापस लौटकर आया तो उसने दरवाजा बन्द देख आवाज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy