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________________ ७० आनन्द प्रवचन : भाग १० इस पर उसने हीरे को मुँह में से निकाला और अपने सामने रखकर उसकी ओर एकटक देखने लगा; और रोष से कहा-"अरे ! कठिन पानी वाले पत्थर ! तू दिखने में बड़ा सुन्दर और चमकदार है, लेकिन मेरे किसी काम का नहीं। तुझे रखकर मैं क्या करूँगा ?" यों गुस्से में बड़बड़ाते हुए उसने हीरे को दूर फेंक दिया। हीरा अपना अपमान समझकर पछताने लगा-"हाय ! मैं कहाँ ऐसे मूर्ख के हाथ में पड़ गया, जो मेरी कीमत एवं कद्र नहीं जानता। इसी कारण मेरी यह दुर्दशा हुई । अगर किसी जौहरी के हाथ में पड़ा होता तो वह मेरी कीमत जानता और कद्र करता; मुझे देख-देखकर खुश होता। यदि किसी राजा के पास होता, उसके मुकुट में जड़ा जाता; या रानी के हार में जड़ा जाता। वहीं एक कवि बैठा था, उसने कहा- "अरे हीरे ! बन्दर ने तेरी कद्र न की, इससे निराश मत हो, सौभाग्य समझ कि उसने पत्थर से तोड़कर तुझे चूर-चूर नहीं किया।" यह एक रूपक है। मूर्ख के हाथ में मनुष्य-जीवनरूपी रत्न आ गया है, लेकिन वह बन्दर की तरह उसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, स्वार्थ आदि में लगाकर व्यर्थ ही नीरस बना देता है और नीरस समझकर लड़ाई-झगड़ों में इसे तोड़ने-फोड़ने को उतारू होता है, जब उससे भी नहीं टूटता तो दुर्व्यसनों के चंगुल में फंसाकर मूर्खतावश इसे इतनी दूर फेंक देता है कि फिर यह मनुष्य-जीवनरूपी रत्न सहसा हाथ में नहीं आता। परन्तु जौहरी की तरह जीवनरत्न के परीक्षक एवं कद्रदान व्यक्ति इसका मूल्य और उपयोग समझते हैं, वे इसे व्यर्थ ही नष्ट नहीं करते, न इसे तोड़ते-फोड़ते हैं और न ही इसे मूर्खतावश इतनी दूर फैकते हैं । वे इसे सेवा, दया, सहानुभूति, परोपकार, धर्माचरण एवं आत्मविकास में लगाकर सार्थक करते हैं, शान्ति और सहृदयता के साथ जीवन यापन करते हैं, सबके साथ प्रेम और सहयोग का व्यवहार करके जीवन को सार्थक करते हैं । मूर्ख के लक्षण और पहचान | यहाँ एक प्रश्न होता है कि ऐसा मूर्ख कौन होगा, जो अपनी अपार हानि भी न समझता हो? यों तो पशु भी सामान्यरूप से अपने हानि-लाभ का विचार कर सकता है, तब क्या मनुष्य अपने हानि-लाभ का विचार नहीं कर सकता? यह तर्क तो युक्तिसंगत है, परन्तु सामान्य स्वार्थ का विचार करने मात्र से मनुष्य मूर्ख नहीं कहलाता, मूर्ख वह कहलाता है, जो सामान्य स्वार्थ का विचार कर सकने पर भी, विशेष स्वार्थ का, अथवा स्व-हित के साथ पर-हित का, या विशिष्ट आत्महित का दूरदर्शितापूर्वक विचार नहीं कर सकता। कई बार वह स्वहित का विचार कर लेने पर भी अपने क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या और स्वार्थ से युक्त मूढ़ व्यवहार के कारण उस स्वहित को भी बिगाड़ लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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