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आनन्द प्रवचन : भाग १०
किन्तु स्त्री- मूढ़ विद्युन्माली विद्याधरों के दिव्य सुखों को भूलकर चाण्डालिनी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को देख-देखकर हर्षित होने लगा । दूसरे वर्ष फिर विद्युन्माली की पत्नी ने गर्भ धारण किया। इधर मेघरथ को एक वर्ष बाद फिर अपने भाई की याद आयी, सोचने लगा-' - 'कहाँ मैं देवांगनासम विद्याधारियों के साथ दिव्य सुखभोग कर रहा हूँ, और कहाँ बेचारा विद्युन्माली, उस कुरूप चाण्डालिनी के साथ सुख मान रहा है । मैं सात मंजिले मकान में रहता हूँ और वह गन्दी, घिनौनी कोठरी में रहता है, मैं तो विविध विद्याओं के जरिये मनोज्ञ भोजन-वस्त्र पाता हूँ, और वह फटे-टूटे वस्त्रों और तुच्छ अन्न पर गुजारा चलाता है । चलूं जाकर उसे यहाँ लिवा लाऊँ ।' यों सोचकर मेघरथ विद्युन्माली के पास आया और कहने लगा-' - "भाई ! चलो, एक वर्ष पूरा हो गया है, अब तो वैताढ्य चलो और विद्याधरों के सुखभोग करो ।”
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विद्युन्माली उदास चेहरे से बोला - "भाई ! कैसे चल सकता हूँ मैं ? मेरी स्त्री पुनः गर्भवती हुई है । मैं उसे छोड़कर आऊँ, ऐसा कठोर हृदय नहीं बन सकता । आप जाइए, यथावसर फिर दर्शन दीजिएगा। अभी तो मैं यहीं रहूंगा । आप इसमें बुरा मत मानना ।"
मेघरथ ने अपने भाई विद्युन्माली को बहुत समझाया, पर वह टस से मस न हुआ । आखिर हार थककर वह पुनः वैताढ्य लौट आया ।
अब तो विद्युन्माली के दूसरा पुत्र हुआ । उसे देखकर तो वह स्वर्ग से भी बढ़कर सुख मानने लगा । घर में अन्न-वस्त्र की तंगी थी, तो भी कष्ट सहता था । दोनों पुत्र उसकी गोद में टट्टी-पेशाब कर देते तो वह उसे गंगा स्नान के समान समझता था । चाण्डालिनी कभी उसे झिड़क देती तो भी चुपचाप सह लेता ।
स्नेहवश मेघरथ फिर तीसरी-चौथी बार उसके पास आया, और कहने लगा - "अरे, तू कुलीन होकर क्यों चाण्डाल कुल में पड़ा है ? क्या मानसरोवर का हंस घर की तलैया में आनन्द मान सकता है ? विद्युन्माली ! क्यों अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रहा है, यहाँ ?" परन्तु इतना समझाने पर भी विद्युन्माली अपनी जिद पर अड़ा रहा । मेघरथ ने भी अब साफ-साफ कह दिया - " अब मैं कभी तुम्हें समझाने नहीं आऊँगा ।" वह अपने जन्म-स्थान में लौट आया । वहाँ अपने पिता के राज्य का चिरकाल तक संचालन करके यथावसर अपने पुत्र को राज्य सौंपा और स्वयं सुस्थित अनगार के पास दीक्षित हो गया । तप, जप, संयम का पालन करके देवलोक में गया ।
इस कथा का यह निष्कर्ष है कि जो विद्याधर समय आने पर ब्रह्मचर्य - पालनपूर्वक अपनी विद्या सिद्ध नहीं करता, वह फिर सारी जिन्दगी मोहमाया में फँसकर बेकार खो देता है । अतः सच्चा विद्याधर वही है, जो अप्रमत्त एवं ब्रह्मचर्यस्थ होकर समय पर अपनी विद्या सिद्ध कर लेता है ।
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