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________________ विद्याधर होते मन्त्रपरायण ५७ आप दोनों से नहीं पूछा, आज पूछ रहा हूँ, कि आप दोनों कहाँ से और किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं ? इस पर दोनों ने अपना असली पता-ठिकाना और आने का प्रयोजन इसलिए नहीं बताया कि दोनों को चाण्डाल के यहाँ रहकर ही अपनी विद्या सिद्ध करनी थी। दोनों ने कहा-हमारे माता-पिता ने नाराज होकर हमें घर से निकाल दिया इसलिए हम दोनों भाई रुष्ट होकर फिरते-फिरते यहाँ चले आये । चाण्डाल को उनकी बात में कोई शंका न हुई, वह बोला-तो फिर यहीं सुखपूर्वक रहो और तुम्हारी इच्छा हो तो हम तुम्हें एक-एक कन्या भी दे दें। परन्तु शर्त यह है कि हमारी कन्याओं के साथ विवाह करने पर हमारे सभी उचित अनुष्ठान करने पड़ेंगे। दोनों विद्याधरों ने शर्त मंजूर कर ली। अतः चाण्डाल ने दोनों भाइयों में से एक के साय अपनी 'काणी' कन्या का और दूसरे के साथ ‘दन्तुर' कन्या का पाणिग्रहण कर दिया। विद्युन्माली जो था, वह कुरूप चाण्डाल कन्या पर भी अत्यन्त मोहित और आसक्त हो गया कि विद्या की साधना करना भी भूल गया । सहवास के कारण विद्युन्माली की पत्नी गर्भवती हुई । इसी प्रपंच में उसका एक वर्ष पूरा हो गया। दूसरी ओर मेघरथ अपनी स्त्री के मोह में न पड़ा, वह पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर अपनी विद्यासाधना करने लगा, एक वर्ष में उसने अपनी विद्या सिद्ध कर ली और विद्यावान हो गया। एक दिन उसने अपने भाई विद्युन्माली से प्रेमपूर्वक कहा-भैया ! हमें यहाँ रहते एक वर्ष पूर्ण हो गया है, हमने अपनी विद्या सिद्ध कर ली है। अतः अब हमें चाण्डालकुल छोड़कर अपने जन्मस्थान वैताढ्य पर्वत पर चलकर दिव्य सुखभोग करना चाहिए । यहाँ की चाण्डालिन को तू छोड़ दे, वहाँ वैताढ्य में विद्याधरी कन्यायें स्वयं हमें वरण करेंगी। यह सुनकर लज्जा से नीचा मुंह किये हुए विद्युन्माली बोला- "भाई ! आप तो अपनी विद्या सिद्ध करके कृतकार्य हो गये, आपने ब्रह्मचर्य पालन करके विद्या सिद्ध कर ली। इसलिए आप तो सुखपूर्वक पधारें। ब्रह्मचर्यपालन में दुर्बल होने से मैंने अपना संकल्प तोड़ दिया, जिससे मैं विद्या सिद्ध कहाँ से करता ? अतः आप विद्यावान् के साथ मुझ विद्याहीन को आने में लज्जा आती है। और फिर मेरी पत्नी गर्भवती भी है, उसे ऐसी हालत में कैसे छोड़ा जा सकता है, अतः आप अकेले ही पधारें । मैं विद्यारहित वहाँ अपने पारिवारिकजनों को कैसे मुंह दिखाऊँगा? मैंने प्रमादवश होकर अपनी आत्म-वंचना की। अब पुरुषार्थी बनकर विद्या सिद्ध करूँगा। आप मुझ पर स्नेह रखकर एक वर्ष बाद मुझे लेने आना । तब मैं अवश्य आपके साथ चलूंगा।" __ यों विद्यन्माली को चाण्डालिनी के मोह में पागल देखकर मेघरथ अकेला ही वैताढ्य पहुँचा । वहाँ पारिवारिकजनों ने पूछा- "तुम अकेले ही कैसे आये ?" इस पर उसने अथ से इति तक विद्युन्मालो की सारी घटना बता दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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