________________
५६
आनन्द प्रवचन : भाग १०
हो सकता है। यही कारण है कि विद्याधरों या मन्त्रसाधकों के लिए जैनमन्त्र-ग्रन्थों में कुछ आचार संहिता दी गयी है उसका पालन करना उसके लिए नितान्त आवश्यक है :
(१) मन्त्रादि का प्रयोग वह किसी स्वार्थ के बिना लोकोपकार के लिए करे। (२) मन्त्रसाधना एकाग्रचित्त से पूर्ण श्रद्धाभक्तिपूर्वक करना आवश्यक है। (३) वह किसी भी दुर्व्यसन से ग्रस्त न हो; सदाचारी हो ।
(४) कई मन्त्रों की साधना के साथ उसका सत्यवादी, ब्रह्मचारी, अहिंसापरायण तथा नीति-न्यायपरायण होना आवश्यक है।
(५) कई मन्त्रों के साथ भूमिशयन तथा तपश्चरण भी अपेक्षित है।
(६) मन्त्र का उच्चारण, शुद्ध एवं स्पष्ट होना आवश्यक है, अन्यथा मन्त्रजाप का यथेष्ट फल नहीं मिलेगा।
(७) मन्त्र-जाप के लिए शुद्ध स्थान, शुद्ध दिशा, शुद्ध वस्त्र, शुद्ध आसन, विधि की पूरी जानकारी, निर्धारित संख्या, पवित्र सुगन्धित वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है।
(८) जिस मन्त्र का वह जाप करना चाहता है, उसका मन्त्राधिष्ठित देव अनुकूल होना चाहिए।
(६) मन्त्र-तन्त्रादि का दुरुपयोग न करे, किसी पर मारण, विद्वेषण तथा उच्चाटन का प्रयोग न करे।
मन्त्रसाधक या विद्याधर के लिए ये और इस प्रकार के नियमों का पालन करना अपेक्षित है; अन्यथा मन्त्रसाधना में वह सफल न हो सकेगा, अन्य अनिष्ट भी पैदा हो सकते हैं।
एक उदाहरण द्वारा इसे समझना ठीक होगा
भरतक्षेत्रीय वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी का आभूषण रूप देववल्लभ एक नगर था। वहाँ दो विद्याधर रहते थे। एक का नाम था-मेघरथ और दूसरे का नाम था विद्युन्माली। ये दोनों सहोदर भाई थे। दोनों में परस्पर गाढ़ स्नेह था । यौवनवय में पदार्पण करते ही दोनों ने एक दिन विचार किया हमें जो विद्या सिद्ध करनी है, वह भूचर क्षेत्र में नीच कुल के मनुष्य के यहाँ रहकर ही सिद्ध हो सकती है। अतः हम दोनों को मनुष्यलोक में जाना और किसी नीच कुल की कन्या के साथ विवाह करके एक वर्ष तक पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना होगा। दोनों ने इस प्रकार निश्चय किया और गुरु से आज्ञा लेकर दोनों मनुष्यलोक में आये । दक्षिण भरतक्षेत्र के बसन्तपुर नगर में पहुँचे। वहाँ दोनों विद्याधर चाण्डाल का वेष बनाकर चाण्डालों के मोहल्ले में गये। वहाँ दोनों ने अपनी बुद्धिमत्ता से एक महाबुद्धिनिधान चाण्डाल के साथ मित्रता की। एक दिन सहसा चाण्डाल ने पूछ ही लिया-मैंने आज तक कभी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org