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________________ विद्याधर होते मन्त्रपरायण ५३ उसकी विधि भी बता दी थी । वह अत्यन्त श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन उस महामन्त्र का जाप करता था । उसने सवालक्ष जाप विधिपूर्वक करके नवकार मन्त्र सिद्ध भी कर लिया था । पड़ौस में एक जैन भाई रहता था । एक दिन उसके लड़के को साँप ने काट खाया । वह बहुत घबराया । अनेक डाक्टरों को दिखाया, पर साँप का जहर न उतरा । पीरभाई को पता लगते ही वह आया, उसने जैन भाई को आश्वासन दियाघबराओ मत, परमात्मा पर विश्वास रखो । सब कुछ ठीक हो जाएगा । उसने उसी समय मन ही मन नवकार मन्त्र का जाप प्रारम्भ कर दिया और लगभग १५ मिनट में ही उसने जाप पूरा करके फूंक मारकर उस लड़के के सिर पर हाथ फिराया कि वह एकदम उठ बैठा, मानो कोई जहर चढ़ा ही न था । उसे स्वस्थ देख जैन भाई के परिवार के सब लोगों के जी में जी आया । सबने अत्यन्त आभार माना और पीरभाई को इनाम देने लगे। उसने साफ इन्कार कर दिया कि यह इन्सानियत के नाते मेरा कर्तव्य था, मेरे पास जो विद्या है, वह किस काम की ? एक दिन प्रसंगवश उस जैन भाई ने पीरभाई से पूछा - " वह कौन-सा प्रभावशाली मन्त्र था, जिसके प्रभाव से तुमने सर्प का विष उतारकर मेरे लड़के को स्वस्थ कर दिया ?" पहले तो पीरभाई ने उस बात को टालना चाहा । परन्तु जैन भाई का अत्याग्रह देखकर उसने कहा – “मुझे यह मन्त्र जैनमुनिजी का बताया हुआ है । उनकी कृपा से प्राप्त हुआ है । जैन लोग तो इस मन्त्र का प्रतिदिन पाठ करते हैं । इसलिए आपको तो पता ही होगा ।" जैन भाई - "बताओ तो सही वह कौन-सा मन्त्र है ?" पीरभाई - " वह है नवकार मन्त्र, जिसे मैंने सिद्ध किया है ।" जैन भाई - "हें ! नवकार मन्त्र, यह तो हमारा जाना-माना मन्त्र है । हम तो रोज इसका जाप करते हैं, लेकिन हमें तो इसका प्रभाव कभी मालूम नहीं पड़ा ।" पीरभाई ने कहा – “यह तुम्हारा घर का मन्त्र है, इसलिए इस पर तुम्हारी श्रद्धा नहीं । विश्वास इसीलिए नहीं कि यह मन्त्र तुम्हारा अति परिचित है ।" मन्त्र तो दुनिया में लाखों हैं, परन्तु विश्वासी, श्रद्धालुं और उसमें तन्मय होकर जाप करने वाले मन्त्रसाधक नहीं रहे । इसीलिए बहुत से मन्त्रविदों ने प्रभावशाली मन्त्र आजीवन गुप्त रखे, वह मन्त्रविद्या उनके साथ ही चली गयी । चूंकि मन्त्र देवाधिष्ठित होते हैं, मन्त्र के माध्यम से अपने अभीष्ट प्रयोजन के लिए उस देव का आह्वान किया जाता है । आप जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना आदर-सत्कार के कब किसी के यहाँ आ सकता है ? फिर देवता तो भावों के भूखे होते हैं, वे तो मनुष्य की श्रद्धा-भक्ति और विश्वास देखते हैं, वे वस्तु को नहीं देखते कि कितनी मात्रा में कितने मूल्य की वस्तु चढ़ाई है, उन्हें तो अर्पणता चाहिए । वह अर्पणता, उत्कट श्रद्धा-भक्ति जिसमें नहीं होती, उसकी मन्त्र - साधना सफल नहीं हो सकती । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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