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आनन्द प्रवचन : भाग १०
इसी प्रकार पहाड़ी गद्दियों के भी कई मन्त्र हैं, वैदिक परम्परा में अथर्ववेद काल से लेकर भक्तिकाल तक मन्त्र तन्त्रों की रचना का बड़ा जोर रहा। इस प्रकार लाखों मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदि बन गये । भारतीय संस्कृति के एक विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया
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अमन्त्रमक्षरं
नास्ति,
नास्ति
मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ॥
"कोई ऐसा भी अक्षर नहीं है, जो मन्त्र न हो, कोई मूल (वनस्पति की जड़) ऐसा नहीं, जो औषध न हो, कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं, जिसमें योग्यता के बीज न हों, पर दुर्लभ है, इनको व्यवस्थित ढंग से जोड़ने वाला, योजना करने वाला ।" मन्त्रविद्या की उत्पत्ति का लक्ष्य
साधारण मनुष्य सुख-शान्ति प्राप्त करना चाहता है, परन्तु उसे सुख-शान्ति प्राप्त होने में कई बाधक तत्त्व उपस्थित हो जाते हैं, वह उन्हें समझ या जान नहीं पाता, कई बार वह प्रयत्न करता है, सुख-शान्ति के लिए, परन्तु उसके बदले प्राप्त होते हैं - दुःख और अशान्ति । शब्दों में निहित अव्यक्त शक्ति से वह परिचित नहीं होता, संकल्पशक्ति के गूढ़ रहस्य से भी वह अज्ञात होता है, पदार्थों के व्यक्त पर्याय कम हैं और परिणमनशील एवं संयोगजन्य होने से अव्यक्त पर्याय बहुत अधिक हैं, उनकी शक्ति भी सामान्यतया ज्ञात नहीं होती, न शब्द संयोजना की विधि ज्ञात होती है । इसलिए सामान्य बुद्धि वाला मानव दुःख और अशान्ति पाता रहता है । परन्तु उसकी जिज्ञासा होती है कि कोई व्यक्ति किसी भी उपाय से मुझे अव्यक्त शक्तियों का रहस्य बताये और दुःख-दर्द दूर करे । इसी में से मन्त्रविद्या की उत्पत्ति हुई है । जो शब्दों, संकल्पों तथा शब्द-संयोजना की शक्ति से परिचित और अभ्यस्त थे, उन्होंने विविध मन्त्रों की रचना की और जिज्ञासु जनता को उनका रहस्य बताया ।
यह सुना जाता है कि मन्त्र गुप्त रखा जाता है, उसे ही बताया जाता है, जो श्रद्धालु, जिज्ञासु और गम्भीर हो, जो मन्त्र का दुरुपयोग न करे, उसे स्वार्थसिद्धि और धनार्जन का साधन न बनाये । वास्तव में यह बात यथार्थ है, मन्त्रों का दुरुपयोग किया, उनसे गलत प्रयोजन भी सिद्ध किये हैं, पीड़ित भी किया है । यही कारण हैं कि मन्त्र अयोग्य अत्यन्त गुप्त रखा जाता है । कई बार लोग जिस मन्त्र हैं, उसके प्रति उनकी श्रद्धा या रुचि नहीं होतीं, वे लगते हैं । अश्रद्धापूर्वक मन्त्र जाप करने से भी उसका यथेष्ट फल नहीं मिलता ।
को नहीं दिया जाता, वह
से
अत्यधिक परिचित हो जाते
उस मन्त्र की अवज्ञा करने
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सूरत की बात है, वहाँ पीरभाई नामक एक मुसलमान रहता था । उसे किसी जैनमुनि ने जिज्ञासु एवं श्रद्धालु समझकर नमस्कार मन्त्र सिखा दिया था ।
बहुत-से लोगों ने कई लोगों को
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