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आनन्द प्रवचन : भाग १०
यक्ष-यक्षिणियाँ भी कहते हैं। ये सब देव-देवियाँ सम्यग्दृष्टिसम्पन्न होते हैं। चूंकि सभी तीर्थकर तो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, वे लौकिक दृष्टि से किसी को भी कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकते । परन्तु उनकी आराधना-अर्चना करने वाले भावुक साधकोंआराधकों को उनकी प्रभावकता को अविचल रखने के लिए वे यक्ष-यक्षिणियाँ लाभान्वित करती हैं।
__ यही कारण है कि आगे चलकर जैन परम्परा में मन्त्र और विद्या के अर्थ में कुछ भिन्नता आ गई है। उत्तरवर्ती मन्त्रग्रन्थों से प्रतीत होता है कि जो मन्त्र स्त्री देवता द्वारा अधिष्ठित हो, उसे विद्या' और पुरुष देवता द्वारा अधिष्ठित हो उसे मन्त्र कहते हैं।
__इसीलिए उत्तरवर्ती मन्त्रग्रन्थों में जहाँ स्त्रीदेवता द्वारा अधिष्ठित मन्त्र हैं, उसे विद्या कहकर विद्यासाधक व्यक्ति प्रार्थना करता है
___ एसा मे विज्जा सिज्झउ "यह मेरी विद्या सिद्ध हो ।”
परन्तु एक बात तो निश्चित है कि विद्या हो या मन्त्र-दोनों के साथ मन्त्र का अविनाभावी सम्बन्ध रहा है। विद्या मन्त्ररहित हो नहीं सकती और मन्त्र विद्या से युक्त भी होता है और देवाधिष्ठित होने पर शुद्ध मन्त्र भी। दोनों के साथ दोनों का सम्बन्ध रहा है। इसीलिए गौतम महर्षि के कहा है-विद्याधर मन्त्र साधना में तत्पर रहते हैं, मन्त्रप्रयोगपरायण होते हैं ।
प्राचीनकाल में विद्या और मन्त्र में इस प्रकार की भिन्नता नहीं थी । विशेषतः जैन परम्परा के शास्त्रों और ग्रन्थों में मन्त्र शब्द के बदले 'विद्या' शब्द का प्रयोग ही अधिक मिलता है। बारहवें अंग दृष्टिवादशास्त्र के चौथे विभाग में चौदह पूर्वो का वर्णन था। चौदह पूर्वो में से १०वा पूर्व विद्यानुप्रवाद पूर्व है। यह परम्परा से एक करोड़ दस लाख पद परिमित माना गया है । इस विशाल विद्यानुप्रवाद पूर्व में मुख्यतया मन्त्र-साधनाओं, सिद्धियों और उनके साधनों का ही वर्णन था। परन्तु खेद है कि
१ देखिये विद्या और मन्त्र में थोड़े-से अन्तर के विषय में प्रमाण
इत्थी विज्जाऽभिहिया, पुरिसो मंतो त्ति तस्विसेसो य ।
विज्जा ससाहणा वा साहणरहितो भवे मंतो॥ जहाँ मंत्र की देवता स्त्री है, वह विद्या कहलाती है, और जहाँ पुरुष देवता है, वह मन्त्र । यही विद्या और मन्त्र में अन्तर है । हैं ये दोनों मन्त्र ही । अथवा साधन सहित मन्त्र विद्या और साधनरहित मन्त्र होता है। धर्म संग्रहिणी में बताया है-'पाठमात्रसिद्धः पुरुषाधिष्ठानौ वा मंत्रः' मंत्र वह है, जो पाठ करने
मात्र से सिद्ध हो जाता है और वह पुरुषदेवताधिष्ठत हो। २ जैसे रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ हैं।
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