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विद्याधर होते मन्त्रपरायण
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राज्य, वैभव एवं धन सम्पत्ति सब कुछ अपने १०० पुत्रों में बाँट दिया। भगवान ऋषभ के कच्छ और महाकच्छ नामक दो कुमारों के पुत्र नमि और विनमि उस समय कहीं बाहर गये हुए थे, वहाँ उपस्थित न थे। ऋषभदेव मुनि बन गये और साधना के लिए चल पड़े। जब नमि और विनमि लौटकर अपने घर आये तो उन्हें पता लगा कि भगवान ऋषभ तो सब कुछ त्याग करके और सबको यथायोग्य बाँट कर तपस्या करने चले गये हैं । सोचने लगे-सबको कुछ न कुछ मिला, लेकिन हम हतभागी कुछ प्राप्त न कर सके। अतः वे दोनों प्रभु ऋषभ की खोज में चल पड़े और पूछते-पूछते जहाँ प्रभु ऋषभदेव थे, वहाँ पहुँच गये । प्रभु तो प्रायः ध्यानस्थ एवं मौनस्थ रहते थे, इसलिए उन्होंने सोचा-हमें प्रभु की सेवा करनी चाहिए । फलतः भगवान ध्यानस्थ होते, तब वे हाथ में तलवार लिए पहरेदार बनकर खड़े रहते ।
___ एक दिन की घटना है-नागराज धरणेन्द्र भगवान ऋषभदेव के वन्दनार्थ वहाँ आया। उसने नमि-विनमि को जब भगवान की सेवा में संलग्न देखा तो पूछा कि "वे इस प्रकार सेवा में क्यों सलग्न हैं ?” दोनों कुमारों ने उत्तर दिया-"जब प्रभु ने मुनिदीक्षा ली, तब हम कहीं दूर गये हुए थे । अतः भगवान की सम्पत्ति से हम वंचित रहे, हमें कुछ भी न मिला । अतः हमें भी प्रभु कुछ दें, इसीलिए हम इनकी सेवा में तत्पर हैं।" धरणेन्द्र मुस्कराकर बोला-"विचार तो तुम्हारा ठीक है, लेकिन तुम देखते नहीं, ये तो सब कुछ छोड़-छाड़कर संन्यासी और योगी बने हैं, ये अकिंचन हैं, तुम जो चाहते हो, उसे वे कैसे दे देंगे? परन्तु तुम दोनों चिरकाल तक भगवान की सेवा में संलग्न रहे, इसलिए मैं तुम्हें वैताढ्य पर्वत के दोनों पावों की दो श्रेणियाँ और आकाशगामिनी आदि महत्वपूर्ण विद्याएँ प्रदान करता हूँ।"
दोनों कुमार विद्याएँ प्राप्त कर आकाशमार्ग से वैताढ्य पर्वत पर चले गये, वहाँ उन्होंने नगर बसाये और अपना राज्य जमाया। वे विद्याओं के धारक थे, इसलिए विद्याधर कुल का विकास हुआ।
जैनशास्त्रोक्त स्थविरावली के अनुसार जैनाचार्यों के कुलों में से एक का नाम विद्याधर कुल था। उस कुल में अनेक मन्त्रात्मक विद्याओं के वेत्ता तथा चामत्कारिक सिद्धियों के धारक आचार्य थे।
निष्कर्ष यह है कि जैन परम्परा में मन्त्रादि-विद्याओं के धारक के अर्थ में विद्याधर शब्द का प्रयोग होता रहा है। वसुदेव हिंडी की इस कथा से भी स्पष्ट हो जाता है कि मंत्रादि विद्याओं के धारक नमि-विनमि से विद्याधर कुल का उद्गम हुआ है।
विद्या और मन्त्र का अविनाभावी सम्बन्ध विद्या शब्द यों तो मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदि से सम्बद्ध है । इसलिए विद्या शब्द यहाँ मन्त्रादि के अर्थ में प्रयुक्त है। जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की सेवा करने वाले उनके धर्मशासन के अधिष्ठायक २४ देव और २४ देवियाँ मानी गई हैं, जिन्हें
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