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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १० प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करते समय हमें उन विद्याधरों की स्मृति हो आती है, साथ ही उनकी महान परोपकारिता और जनसेवा की झलक भी मिलती है। यद्यपि प्राचीन विद्याएँ बहुत-सी लुप्त हो गई हैं. वे केवल स्मृतिशेष रह गई हैं। फिर भी हमारे महान् आचार्यों ने उन पर शोध एवं प्रयोग करके कुछेक विद्याएँ जीवित रखी हैं। विद्याधर और विद्याएँ विद्याधर का सामान्यरूप से अर्थ होता है-विद्याओं को धारण करने वाला, विद्याओं को सम्यकरूप से ग्रहण करके स्मृति में रखने वाला, विद्याओं का धारक । इस दृष्टि से तो दर्शन, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र, तन्त्र, भौतिक विज्ञान, कला, शिल्प, योग आदि समस्त विद्याओं के धारक को हम विद्याधर कह सकते हैं। लेकिन हमें देखना यह है कि प्रस्तुत विद्याधर शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ? कौन-सी विद्या के धारक को विद्याधर कहना यहाँ अभीष्ट है ? जैनकथा साहित्य में यत्र-तत्र अनेक विद्याधरों का उल्लेख आता है कि अमुक विद्याधर आकाशगामिनी विद्या जानता था, अमुक विद्याधर ने उड़नखटोला बनाया, जो आकाश में अधर रहकर उड़ता था; अमुक विद्याधर अवस्वापिनी विद्या के द्वारा दूसरों को निद्रित कर देता था, अमुक विद्याधर ने तिरोहित हो जाने की विद्या सिद्ध कर ली, जिससे वह किसी को नजर नहीं आता था, अमुक विद्याधर रूप परिवर्तन कर लेते थे। तात्पर्य यह है कि मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र विद्याओं से जो विविध प्रकार के आश्चर्यजनक एवं उस युग में मानव की साधारण शक्ति से बढ़कर जो कार्य, उनका प्रयोग करके दिखलाते थे, या प्रयोग करके वे स्वयं लाभ उठाते थे, उन्हें ही प्रस्तुत में विद्याधर कहा जाना अभीष्ट है । प्रस्तुत में मन्त्रादि विद्याओं के धारक को विद्याधर कहने का कारण यह है कि यहाँ विद्याधर शब्द के साथ उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति-मन्त्रपरायणता का उल्लेख जुड़ा हुआ है। इससे भी फलितार्थ यही निकलता है कि जो मन्त्रादि विद्याओं का धारक हो, वही विद्याधर है।। आगे हम आधुनिक विद्याधरों एवं विद्यावानों के सम्बन्ध में भी इस जीवनसूत्र की दृष्टि से विचार करेंगे, लेकिन फिलहाल तो मन्त्रादि विद्याओं के धारक के सम्बन्ध में पहले विचार कर लेना आवश्यक है। संघदासगणी की एक महत्वपूर्ण रचना है- 'वसुदेव हिंडी।' उसके चतुर्थ लम्भक (अध्याय) में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का चरित्र विस्तृत रूप से वर्णित है । इस अध्याय में एक कथा दी गई है, जिससे प्रतीत होता है कि विद्या (मन्त्रादि विद्या) के प्रवर्तन का सम्बन्ध भगवान ऋषभ के समय के साथ जुड़ा हुआ है । जब भगवान ऋषभदेव समस्त लोक-व्यवस्थाओं का प्रजाहितार्थ सम्पादन करके भागवती मुनिदीक्षा स्वीकार करने को तैयार हुए, उस समय उन्होंने अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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