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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १० महामन्त्री ने दबे स्वर से कहा- "मनुष्य मात्र भूल का पात्र है, महाराज !" राजा-"मैं यह नहीं सुनना चाहता । मैंने जो कहा है, वैसा ही करना है।" "शिल्पियों को बुलाता हूँ", कहकर महामन्त्री चला गया। कुछ ही दिनों में एक एकान्त स्थल में नरकागार बनकर तैयार हो गया। उसमें दण्ड के पृथक्-पृथक खण्ड बनाये गये जैसे-हत्याविरोध-खण्ड, चौर्यविरोधखण्ड, व्यभिचारविरोध-खण्ड, असत्यविरोध-खण्ड आदि। साथ ही कठोर दण्ड भी नियत किये; जिन्हें सुनते ही रोंगटे थर्रा उठे, जैसे- किसी को गर्म तेल के कड़ाह में डालने का, किसी के सारे शरीर को बाँधकर कोल्ह में पेरने का, किसी को गर्म खम्भे के साथ बाँधने का, किसी को गर्मागर्म शीशा पिलाने का, साथ ही दण्ड को क्रियान्वित करने वाले कठोर हृदय पुरुष भी रखे गये । मृत्यु दण्ड का भी वे कठोरतापूर्वक अमल करते थे । परन्तु न जाने क्यों, बुझते दीपक की तरह अपराधियों की संख्या बढ़ती ही चली गयी। हर रास्ते चलता आदमी फरियाद करने आता-अमुक ने मेरी सुई चुरा ली, अमुक मेरा पशु बाँधने का खूटा उखाड़ ले गया, अमुक ने मुझे अपशब्द कहे इत्यादि । महाराज अशोक सूबह से शाम तक शिकायत सुनते-सुनते हैरान हो जाते । फिर भले ही 'ककड़ी के चोर को फांसी की सजा' जैसी कहावत चरितार्थ की जाती हो । राजा को अब अपने न्याय के बारे में शंका होने लगी, फलतः एक स्वतन्त्र न्याय विभाग खोला । जो अधिकारी वहाँ नियुक्त किये गये, वे भयंकर दण्ड देने लगे । जनता में हाहाकार मच गया। - इसी समय एक भिक्षु गुनाहगार के रूप में पकड़ा गया। अपराध थानास्तिक होने का, ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करने का । अशोक ने उससे कहा"नास्तिक ! तेरा अपराध भयंकर है।" वह साधु बोला-"आस्तिक ! तेरा अपराध भी अक्षम्य है।" अशोक-"अरे दुष्ट ! नास्तिक होकर भी इस प्रकार बोलता है ?" साधु-"मुझसे बढ़कर अपराध तो तूने किया है । तू खुद ईश्वर बना है।" अशोक-“कौन कहता है ?" साधु-'मैं कहता हूँ। मनुष्य को तौलने का काम उसी का है । नरक-स्वर्ग की रचना उसी की है। उसका शाप भी वरदान रूप है । तेरे कत्लखाने-से नरक में कहाँ ऐसी रचना है ? चल, तुझे तेरा अन्याय बताऊँ । वहाँ निरपराधी भद्र आदमी मारे जाते हैं, अपराधी स्वर्ग सुख की सी मौज उड़ाते हैं।" अशोक यह सुनकर स्तब्ध हो गया। उसने साधु के साथ चलकर देखा सचमुच वहाँ निरपराध दण्डित हो रहे थे।" यह देख अशोक ने विनम्र होकर कहा"महात्मन् ! मैं ही दण्डपात्र हूँ। आप मुझे दण्ड दें।" १ इस कहानी में वैदिक धर्म के ईश्वर-कर्तृत्ववाद की दृष्टि से भिक्षु ने ऐसा कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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