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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-२ ४१ इसी समय दण्डनायक कितने ही अपराधियों को रस्सी से बाँधकर उपस्थित हुए। सम्राट की सेवा में निवेदन किया-"स्वामिन् ! इस एक अपराधी ने पानी के बाँध की पाल तोड़कर फिजूल पानी बहाया है।" सम्राट-ओह ! कितनी दुष्टता! प्रजा के पेय जल के साथ खिलवाड़ ! इस अपराधी को बांध में डुबाकर मार डालो।" दूसरे अपराधी को आगे करते हुए दण्डनायक ने कहा- "इसने अपने नगर के प्रसिद्ध रेशम निर्माता की अंगुलियों को चोट पहुँचाई है।" सुनकर राजा बोले- "ओह ! इसने एक शिल्पी को हानि पहुँचाकर सारे देश को हानि पहुँचाई है। इसके गले में रेशमी डोरी बाँधकर पेड़ के साथ बाँधकर इसे लटका दो।" सजा सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो गये। इस प्रकार अशोक ने अपराधियों को भयंकर दण्ड देना शुरू किया। परन्तु जैसे जीवहिंसा करने से जीवोत्पत्ति बढ़ती है, वैसे ही गुनाहगारों की संख्या बढ़ती गयी। ___अशोक ने एक दिन महामन्त्री से पूछा- "क्या लोग पाप से नहीं डरते ? पाप करने वाले को नरक मिलता है, यह नहीं जानते ?" महामन्त्री बोला- "सभी जानते हैं, पर 'यह भव मीठा, तो परभव किसने दीठा ?' इस सूत्र का अनुसरण करते हैं।" इस पर अशोक ने गम्भीरता से सोचा- "मुझे तो पृथ्वी को पुण्यशीला बनाना है। कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मानव पुण्य की ओर प्रवृत्त हो?". एक दिन शाम को अशोक की दृष्टि भेड़ों पर पड़ी, जो भेड़ियों के डर से चरवाहे के पीछे-पीछे चल रही थीं, इस पर स्फुरणा हुई कि 'भय बिना प्रीति नहीं' यह कहावत ठीक है । अतः इस पृथ्वी पर ही ऐसा नरकागार बनाऊँ, जिससे किसी को अपराध करने का विचार ही न आये । नरक का नाम सुनते ही काँप उठे । उसी समय राजा ने महामन्त्री को बुलाकर कहा-"शिल्पियों को बुलाओ, मुझे नरकागार का निर्माण कराना है।" महामन्त्री-"किसके लिए ?" राजा-"राज्य के सभी दुराचारियों के लिए।" महामन्त्री-"तो फिर सदाचारियों के लिए स्वर्ग की भी रचना करायेंगे न ?" राजा-"हाँ, एक ओर नरक, दूसरी ओर स्वर्ग । दुष्ट को नरक और शिष्ट को स्वर्ग।" महामन्त्री-"पर महाराज ! दुष्ट और शिष्ट की परीक्षा में कभी भूल तो नहीं होगी न?" । राजा ने कहा- "मेरे से भूल कैसे होगी भला?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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