SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० आनन्द प्रवचन : भाग १० हाँ, तो मैं कह रहा था कि जनता की सेवा के लिए मिले आधिपत्य का जो जनता को उत्पीड़ित एवं क्रूरता से दण्डित करके दुरुपयोग करता है, उसे देर-सबेर उन दुष्कर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता । प्राचीन भारतीय इतिहास में ऐसे भी अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जो राज्याधिप निरंकुश और उद्दण्ड होकर प्रजा को सताता था, धर्मविरुद्ध चलता था, दुराचारी बन गया था, उस सत्तामदान्ध राजा को प्रजा ने ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों के सहयोग से राजगद्दी से उतार दिया था । वैदिक महाभारत में राजा वेन की कथा आती है । वह अत्याचारी और निरंकुश राजा था । उसने अपने अन्धाधुन्ध मनमाने व्यवहारों से अपने पिता को ही राज्य छोड़कर भागने को विवश नहीं किया, बल्कि सात्त्विक ऋषियों को छेड़कर उनके हृदय में भी क्रोध का बीज अंकुरित कर दिया। फलतः प्रजा ने भड़ककर ऋषियों के नेतृत्व में उसे उखाड़ फेंका। उसके स्थान पर ऋषियों द्वारा शपथ दिलाकर वेन के पुत्र वेन्य-पृथु को राजगद्दी पर बिठाया । अतः दुष्ट राज्याधिप को तो भारतीय जनता प्रायः सहन नहीं कर पाती थी । मध्ययुग में जब जनता के नैतिक संगठन निर्बल हो गये या न रहे, तब कई निरंकुश, दुर्व्यसनी एवं अत्याचारी राजाओं ने अपनी मनमानी चलाई । राज्याधिप की अति कठोर दण्डपरायणता से क्या हानि, क्या लाभ ? कई राज्याधिपति यह सोचा करते हैं कि कठोर दण्ड देने से उसके भय से जनता पापकर्म या धर्मविरुद्ध कार्य करने से रुक जायगी, परन्तु यह सोचना भी भूलभरा है । अत्यधिक दण्ड से प्रजा सुधरती नहीं, बल्कि धृष्ट होकर पाप या अकृत्य करती रहती है । फिर उसे रोकना या काबू में करना कठिन हो जाता है । दण्ड देतेदेते राजा थक जायगा, रात-दिन इसी क्रूर उधेड़बुन में पड़ा रहेगा । अति कठोर दण्डपरायणता से क्या-क्या हानियाँ होती हैं ? इसे समझाने के लिए मैं एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ पाटलिपुत्र के तरुण राजा अशोक ने एक दिन अपने महामन्त्री से कहा - " मेरे राज्य में पाप और अपराध का नामोनिशान भी न रहना चाहिए।" महामन्त्री ने करबद्ध होकर कहा - "महाराज ! भारतीय लोग सौगन्ध खाने के लिए भी झूठ नहीं बोलते, वे अपने घर के ताला नहीं मारते, चाहे जैसे झगड़े के निपटारे के लिए अदालत में नहीं जाते ।" " पर महामन्त्री ! इतने मात्र से ही मुझे सन्तोष नहीं होता । मेरी महत्वाकांक्षा तो यह है कि मेरे राज्य में पापकार्यमात्र नष्ट हो जाय, पापी का नाम भी न रहे ।" सम्राट ने कहा । महामन्त्री कुछ न बोले, वे गम्भीर विचार में मग्न हो गये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy