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आनन्द प्रवचन : भाग १०
चम्पकवती लकड़ियां लेने गई, मगर वहाँ सूखी लकड़ियां कहाँ मिलतीं ! अतः उसने नम्रतापूर्वक निवेदन किया-"महारानीजी ! यहाँ तो कहीं सूखी लकड़ियाँ नहीं दिखाई देतीं। आप महलों में पधारें वहाँ मैं सब इन्तजाम कर दूंगी। क्षमा करें, मैं लाचार हूँ।"
महारानी बोली- "मुझे तो इतनी ठंड लग रही है और तू महलों में पहुंचने को कह रही है । इस समय मुझे तापना जरूरी है। देख तो, ये सामने झोंपड़ियाँ खड़ी हैं, इनमें से एक में आग लगा दे। इससे मेरा ठंड मिटाने का काम हो जायगा।"
चम्पकवती समझदार और दयालु दासी थी। वह नम्रतापूर्वक बोली"महारानीजी ! आपकी आज्ञा सिर-माथे पर; परन्तु ऐसा काम करना अच्छा नहीं है । ये बेचारे गरीबों की झोंपड़ियां हैं। बड़ी मेहनत से उन्होंने बनाई हैं। एक झोंपड़ी में आग लगाने पर आसपास की पचासों झोंपड़ियां जलकर स्वाहा हो जाएँगी । गरीब लोगों का सर्वनाश हो जायगा । वे बेघर-बार होकर ठंड के मारे मर जायेंगे।"
यह सुनकर महारानी का पारा गर्म हो गया। वह गुस्से में आकर बोली"बड़ी आई है दयावती कहीं की? अगर इतनी दया थी तो लकड़ियाँ क्यों नहीं ले आई ? अच्छा, सुलेखा ! तू जा और झटपट किसी एक झौंपड़ी में आग लगा दे।"
सुलेखा दासी ने महारानी की त्यौरियाँ चढ़ी हुई देखीं तो वह सहमती हुई-सी चुपचाप दौड़कर एक झोंपड़ी के पास पहुंची और उसमें आग लगा दी। झोंपड़ी धाँय-धाँय जल उठी। महारानी ने अपने हाथ-पैर सेके और ठण्ड मिटाई। शरीर में गर्मी आने से शान्ति हुई। फिर महारानी अपने रथ में बैठकर दासियों सहित राजमहल को चल दी।
इधर एक झोंपड़ी के जलने से उसकी लपटें हवा के कारण दूर-दूर तक फैल गई और आस-पास की सभी झोंपड़ियाँ शीघ्र ही जलकर खाक हो गईं। गरीब लोग जब अपनी झोंपड़ियाँ सँभालने आये और उन्होंने यह दृश्य देखा तो सन्न रह गये । झोंपड़ियों के बदले राख का ढेर उन्हें मिला, घर का सामान भी उसी के साथ भस्म हो गया । बेचारे गरीब मजदूरों के शोक का पार न रहा। वे रोने-चिल्लाने लगे"हाय ! हमने तो सोचा था महारानी हमें कुछ बख्शीस देकर जाएँगी, उन्होंने तो हमारा सारा घर-बार ही नष्ट कर दिया । हम अब कहाँ आश्रय लेंगे । एक ही तो ठिकाना था ! अब हमारी क्या दशा होगी ?"
उन गरीब मजदूरों की झोंपड़ियों के आस-पास कुछ फक्कड़ बाबा भी रहते थे । उनमें से एक बाबा ने गरीबों को रोते-चिल्लाते देख उन्हें ढाढस बंधाया और कहा-मूर्यो ! यों रोने-चिल्लाने से तुम्हारी झोंपड़ियाँ कौन बना देगा? तुम्हें पुकार ही करनी हो तो चलो, सब मिलकर मेरे साथ चलो । राजाजी के आगे अपनी पुकार करो । उनसे न्याय माँगो।"
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