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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-२ २३ चलती है, राज्य के कानून-कायदों के बिना ही अपनी अन्तःप्रेरणा से वह नागरिक के सभी नियमों का पालन करती है। पर यह सब श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान् राज्याधिप के होने पर ही हो सकता है । अशिष्ट, दुष्ट एवं मूर्ख राजा तो अपनी दण्डशक्ति के बल पर नाचता है, उसके राज्य में तो अमन-चैन, सुव्यवस्था और सुख-शान्ति चौपट हो जाती है। शिष्ट राज्याधिप : न्याय में सुदृढ़ जो सज्जन और शिष्ट राज्याधिप (शासक) होते हैं, वे न्यायपरायण होते हैं । न्याय के मामले में वे अपने परिवार के किसी व्यक्ति के अपराध पर भी रियायत नहीं करते। वे प्रजा के प्रति वफादार होते हैं और प्रजा की ओर से उनके किसी सम्बन्धी के प्रति कोई शिकायत या दोष की फरियाद आने पर वे उचित न्याय किये बिना नहीं रहते। प्राचीनकाल में काशी के एक राजा अपने न्याय के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वह न्याय के मामले में अपने पारिवारिक जनों की भी रियायत नहीं करते थे। उनकी रानी का नाम करुणा था। जैसा उसका नाम था, वैसा काम नहीं था। उसके हृदय में अपने ही मौज-शौक की लालसा थी, प्रजाजनों के दुःख-निवारण की चिन्ता नहीं थी। एक दिन करुणा रानी की इच्छा हई कि मैं वरुणानदी में स्नान और जलक्रीड़ा करने जाऊँ। उसने राजा से इस बात के लिए अनुमति माँगी और वरुणा के तट पर व्यवस्था कर देने की प्रार्थना की। राजा स्वयं उदार स्वभाव के प्रकृति-प्रेमी थे। वे चाहते थे कि महिलाएँ भी सुखपूर्वक प्राकृतिक छटा का अवलोकन करें और प्रकृति से कुछ प्रेरणा लें। अतः उन्होंने बिना किसी आनाकानी के सहर्ष महारानी को आज्ञा दे दी तथा कुछ सिपाहियों को वरुणानदी के तट पर इस व्यवस्था के लिए भेज दिया। सिपाही नदी तट पर पहुँचे और वहाँ जिन गरीब मजदूरों की झोंपड़ियाँ थीं, उन्हें सावधान कर दिया कि आज महारानीजी यहाँ जलक्रीड़ा के लिए पधारने वाली हैं। इसलिए तुम सब लोग अपना-अपना आवश्यक समान लेकर लगभग घंटेभर के लिए अपनी झोंपड़ी छोड़कर दूर चले जाओ। जब महारानीजी वापस चली जाएँ, तब लौट आना । बेचारे गरीब लोगों ने बहुत खुशियाँ मनाईं कि महारानी पधारेंगी तो हमें भी कुछ इनाम दे जाएँगी। वह खुशी-खुशी अपनी झोंपड़ियाँ बन्द करके दूर चले गये। इधर महारानीजी अपनी सौ दासियों के साथ रथ पर सवार होकर वरुणानदी के किनारे पहुँची। वरुणा की शान्त, सतत प्रवाहित जलधारा देखकर करुणारानी ने मन ही मन सुन्दर प्रेरणा ली। फिर नदी में प्रवेश करके किलोल करने लगी। यथेष्ट जलक्रीड़ा करके जब रानी बाहर निकली तो उसे ठंड लगने लगी। पौष का महीना था। इसलिए पानी से बाहर निकलते ही रानी थर-थर काँपने लगी। उसने अपनी चम्पकवती नाम की दासी से कहा-"कहीं से ढूंढकर सूखी लकड़ियाँ लाकर जला दे, ताकि मैं तापकर अपनी ठंड मिटा लूं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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