________________
३६०
आनन्द प्रवचन : भाग १०
या अधिकार के बल पर कुछ अर्से तक बनावटी यश पा लेता है । आखिरकार केवल धन, सत्ता, बल या अधिकार के बलबूते पर कमाया हुआ यश चार दिनों की चाँदनी बनकर रह जाता है। या तो वह धनिक, सत्ताधारी, बलशाली अथवा अधिकारी के किसी दुराचार, अत्याचार, अनाचार या पापकर्म अथवा किसी बुरे ऐब के कारण अपयश में परिणत हो जाता है, या फिर . वह धन, सत्ता आदि के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाता है। भौतिक वैभव के बल पर अजित यश कभी चिरस्थायी नहीं होता।
कहते हैं रावण बहुत विद्यावान, बलवान एवं बुद्धिमान था, सत्ताधीश भी था, उसकी धाक दूर-दूर तक पड़ती थी, किन्तु महासती सीता का कामुक दृष्टि से अपहरण करने के बाद उसका यश क्षीण हो गया, वह अपयश में परिणत हो गया। दुर्योधन, कंस आदि सब सत्ताधीश थे, लेकिन उनके अन्याय-अत्याचारपूर्ण कारनामों के कारण उनको मिला हुआ यत्किचित् यश भी मिट गया, जनता द्वारा उनके अपयश की दुन्दुभि बजाई जाने लगी थी। यश तभी स्थायी रह सकता है, जबकि मनुष्य में शील-चारित्र या सदाचार हो। शील के बिना यश कदापि टिक नहीं सकता, चाहे व्यक्ति कितना ही धनवान हो, बलवान हो, विद्यावान हो, ऐश्वर्यवान हो या सत्ताधीश हो । यश के लिए धन, बल, सत्ता या ऐश्वर्य आदि का होना कोई आवश्यक नहीं है । एक निर्धन, सत्ताहीन, अधिकार या पद से रहित अथवा विद्या-बुद्धि से रहित व्यक्ति भी शीलगुण के आधार पर यश प्राप्त कर सकता है, और वह यश चिरस्थायी होता है। अगर शीलगुण के साथ धन, पद, अधिकार बल आदि हों तो कहना ही क्या है ? परन्तु शील न हो और केवल धन, बल, विद्या आदि में से कोई एक या सभी हों, तो भी मनुष्य चिरस्थायी यश प्राप्त नहीं कर सकता ।
पाश्चात्य विद्वान D. L. Moody (डी. एल. मूडी) ने शील और यश का स्थायी सम्बन्ध बताते हुए कहा
"If I take care of my character, my reputation will take care of itself.”
"अगर मैं अपने चरित्र (शील) का संरक्षण करूंगा तो मेरा यश भी स्वयं अपना संरक्षण करेगा।"
शीलगुण ही एक ऐसा सद्गुण है, जो न धन से प्राप्त हो सकता है, न सत्ता से, और न ही अन्य किसी भौतिक सम्पदा से । यह तो मनुष्य के जीवन की पवित्र संस्कार-धरोहर है, अथवा शुद्ध आचरण की सौरभ है, जिससे यश भी सुगन्धित हो जाता है, या आकर्षित हो जाता है और अपनी सुगन्ध दूर-दूर तक फैलाता है। बौद्धधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ 'धम्मपद' एवं 'विसुद्धि मग्गो' में शील की सुगन्ध की व्यापकता बताते हुए कहा है
चंदनं तगरं वापि, उप्पलं अथ वस्सिकी । एतेसं गन्धजातानं, सोलगन्धो अनुत्तरो ॥४-१२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org