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________________ शीलवान आत्मा ही यशस्वी ३६१ अप्पमत्तो अयं गंधो, यायं तगरचंदनी। या च सीलवंतं गंधो, वाति देवेसु उत्तमो ॥४-१३॥ . . सीलगंधसमो गंधो कुत्तो नाम भविस्सति । यो समं अनुवाते च परिवाते च वायति ॥विसु०प० ॥ चन्दन या तगर, कमल या जूही, इन सभी सुगन्धों से शील की सुगन्ध श्रेष्ठ है । चन्दन और तगर की जो यह गन्ध फैलती है, वह तो अल्पमात्र है, किन्तु जो यह शीलवन्तों की गन्ध है, वह उत्तम देवों तक फैलती है । शील की सुगन्ध के समान दूसरी गन्ध कहाँ से होगी ? जोकि अनुकूल हवा के बहने पर तथा विपरीत हवा के बहने पर भी एक समान बहती है। निष्कर्ष यह है कि शील की सुगन्ध अप्रतिहत और चिरस्थायी है, वह देवों, दानवों, मानवों और पशुओं तक भी पहुँचती है । वे भी शीलवान की सुगन्ध पाकर उनसे आकर्षित होते हैं, उसकी शील से पवित्र आत्मा का यशोगान करते हैं। उसके चरणों में नतमस्तक होते हैं, उसके अनुकूल होकर उसके मनोवांछित सत्कार्यों को सफल करने में सहयोगी बन जाते हैं। इसीलिए पश्चिम के प्रसिद्ध साहित्यकार सेक्सपीयर (Shakespeare) ने यश के भूखे लोगों को चेतावनी देते हुए कहा है "See that your character is right, and in the long run your reputation will be right. ___ "देखो कि तुम्हारा शील (चरित्र) ठीक है तो अन्ततोगत्वा तुम्हारा यश भी ठीक होगा।" वास्तव में देखा जाए तो शील के सुहावने प्रकाश-स्तम्भ पर ही यश का प्रकाश चिरस्थायी रहता है। जहां शील नहीं होगा, वहाँ अन्यान्य गुण हुए तो भी उसका प्रकाश चिरस्थायी नहीं रहेगा। एक व्यक्ति बहुत दानी है, परोपकार के कार्य करता है, जो भी जरूरतमन्द आते हैं, उन्हें आवश्यक मदद देता है, किन्तु उसका शील ठीक नहीं है, वह पराई बहू-बेटियों को फंसाता है, धन या सत्ता के बल पर वह उनको शीलभ्रष्ट करता है, अथवा गरीबों का शोषण करता है, उन पर अत्याचार करता है, ऋण लेने वालों से बहुत ही ऊंचे दर का ब्याज लेता है, कर्मचारियों को उनका मेहनताना. पूरा नहीं देता । ऐसी स्थिति में उस दानादि परायण व्यक्ति को दान आदि के बल पर जो भी थोड़ा-बहुत यश मिलने लगा था, वह भी शील न होने से लोक हृदय से लुप्त हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में शील एवं संयम पालन न करने वाले दानपरायण की अपेक्षा अदानपरायण, किन्तु शील-संयमवान को श्रेष्ठ बताते हुए कहा है जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्स वि संजमो सेओ, अस्तिस्स वि किंचणं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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