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________________ ५६ शीलवान आत्मा ही यशस्वी धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आध्यात्मिक जीवन ही आत्मा का विकास और उत्थान करने वाला जीवन है । इस जीवन में व्यक्ति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अंगोपांग, समाज, जाति, राष्ट्र आदि की दृष्टि से न सोचकर विशुद्ध आत्मा की दृष्टि से सोचता है । जब एक आध्यात्मिक पुरुष अपनी शुद्ध आत्मा की दृष्टि से अपने विकास और ह्रास, उत्थान और पतन, उन्नति और अवनति, श्रेय और प्रेय तथा प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित आदि पर गहराई से चिन्तन करता है तो उसे यह भी सोचना आवश्यक हो जाता है कि मेरी आत्मा का विकास कैसे होता है और ह्रास कैसे ? मेरी आत्मा के उत्थान का क्या कारण है, पतन का क्या ? इसी प्रकार उन्नति और अवनति का हेतु क्या है ? मेरी आत्मा कब प्रतिष्ठित कहलाती है, कब अप्रतिष्ठित ? इसी चिन्तन में सहायभूत जीवनसूत्र महर्षि गौतम ने दिया है जिस पर आज मैं आपके समक्ष विश्लेषण प्रस्तुत करूंगा। गौतमकुलक का यह अड़तालीसवां जीवनसूत्र है। वह इस प्रकार है 'अप्पा जसो सीलममओ नरस्स ।' "शीलवान व्यक्ति की आत्मा यशस्वी होती है।" शील ही यश का स्थायी मूलाधार मनुष्य यशस्वी बनने के लिए अनेकों उपाय सोचता रहता है; दाम, परोपकार, पुण्य आदि कार्य करता भी है, किन्तु उनसे जो यश मिलता है, वह स्थायी नहीं होता, वह उस मनुष्य के किसी न किसी बुरे ऐब के कारण धुल जाता है। यश का पौधा लोकापवाद की एक आंधी आते ही उखड़ जाता है । मनुष्य चाहे शरीर से पहलवान हो, सुन्दर और सुडौल हो तो गामा आदि पहलवानों की तरह थोड़ो-सी नामबरी हो जाती है । सुन्दर शरीर वाले की सनत्कुमार आदि की तरह कुछ अर्से तक-जब तक शरीर जरा-जीर्ण या रोगाकीर्ण नहीं हो जाता, तब तक लोग प्रशंसा के फूल चढ़ा देते हैं। उसके सौन्दर्य में वासवदत्ता की तरह व्याधिग्रस्त न होने तक कामी पुरुषों का आकर्षण रहता है जिससे वह थोड़ी-सी प्रशंसनीय हो जाती है। कोई धनवान होता है, सत्ताधीश होता है या कोई अधिकारी होता है, वह धन, सत्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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