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अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३८७ जब हम नमाज पढ़ते हैं, तब-तब आपको पता है, यह कैसी-कैसी जोर-जोर से आवाजें करता है। ऐसी स्थिति में नमाज पढ़कर चित्त खुदा में ओत-प्रोत होने के बदले हमारा चित्त इन आवाजों में ही लग जाता है।" ..
... हजरत ने कहा- "भाई ! मुझे तो इस बात का आज ही पता चला कि मैं जब-जब नमाज पढ़ता हूँ, तब-तब मेरा पड़ोसी आवाज करता है। परन्तु मैं तो जब नमाज पढ़ने बैठता हूँ, तब मेरा मन खुदा के साथ इतना तन्मय हो जाता है कि मेरे आस-पास क्या हो रहा है, इसका मुझे जरा भी पता नहीं होता।"
सचमुच, जो व्यक्ति आत्मस्वरूप-परमात्मा के ध्यान में मन को ओत-प्रोत नहीं करता, तथा अनवस्थित होकर इधर-उधर की विषय-कषायों की झाड़ियों में उलझकर अपनी आत्मा को बन्धनों में जकड़ लेता है, वह अपनी आत्मा का शत्रु क्यों नहीं बनता ? अवश्य बनता है।
इसी प्रकार जो व्यक्ति मन को शान्त और सन्तुलित रखकर काम नहीं करता, उसकी आत्मा भी अनवस्थित है । जब मन अशान्त और असन्तुलित होगा तो काम में कई भूलें होंगी। मन शान्त नहीं होगा तो पति-पत्नी में झगड़ा होना सम्भव है । जब दिमाग असन्तुलित होगा तो गृहिणी द्वारा चाय बनाते समय उसमें चीनी या तो कम-ज्यादा पड़ जाएगी, या फिर चीनी के बदले नमक भी पड़ना सम्भव है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है, परस्पर अपशब्दों की बौछार हो जाए या झगड़ा होने से कर्मबन्ध का दौर चल पड़े । वह सारा दिन यों ही गर्मागर्मी में व्यतीत होगा। इसी कारण अशान्त और असन्तुलित मन-मस्तिष्क से काम करने वाले के सभी काम बिगड़ते हैं । साधना में तो अशान्त और असन्तुलित मन-मस्तिष्क आत्मा को राग-द्वेष और कषायों की आग में झोंक ही देता है ।
भूलें प्रायः अशान्त चित्त होने से ही होती हैं। शान्त और एकाग्रचित्त होकर साधना करने से, भूल का भी पता लग जाता है, साधना भी अच्छे ढंग से होती है । अन्यमनस्कता के कारण कोई भी कार्य ढंग से नहीं होता।
जो व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र, तन्मय या तल्लीन नहीं कर पाता, उसकी अनवस्थित आत्मा किसी भी आध्यात्मिक सामाजिक या व्यावहारिक सत्कार्य में सफल नहीं हो सकती।
एक डाक्टर ने नैपोलियन से पूछा- "आप जिन कार्यों को हाथ में लेते हैं, उनमें सफलता प्राप्त करते हैं, इसका मुख्य कारण क्या है ?" नैपोलियन ने कहा"मैं जो काम हाथ में लेता हूँ, उसमें तल्लीन हो जाता हूँ। यह काम कैसे सफल होगा ? कहाँ-कहाँ विघ्न आ सकते हैं ? उसका सामना कैसे करेंगे? इन सब विचारों में मेरा मन एकाग्र हो जाता है। और फिर मैं इस कार्य के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार करने के बाद ही उसे शुरू करता हूँ । एक कार्य करते समय मैं दूसरा कार्य हाथ में नहीं लेता, न उसका विचार ही करता हूँ। जिस समय जो कार्य करना होता है,
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