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आनन्द प्रवचन : भाग १०
व्यवहारिक जगत् में देखा जाये तो सफलता उसी को मिलती है, जो एकनिष्ठ होकर, एक लक्ष्य पकड़कर उसी दिशा में प्रगति करे । अपनी प्रतिभा को चारों ओर बिखेर देना, बहुत बड़ी भूल है । अनेक दिशाओं में मन को डुलाने और प्रतिदिन नया काम ढूंढने की अपेक्षा, यह अच्छा है कि काफी सोच-समझकर कोई मार्ग ग्रहण किया जाये और फिर उसी को दृढ़ता से पकड़े रहकर उसी दिशा में कदम बढ़ाया जाये । जो व्यक्ति सब कुछ ढूंढने का प्रयत्न करता है, उसे कुछ नहीं मिल पाता। लगातार एक जगह गिरने वाली बूंदें पत्थर में भी छेद कर सकती हैं पर लम्बी दौड़ में उछलता फिरने वाला नाले का पानी धड़धड़ाता हुआ क्षणभर में निकल जाता है, बाद में उसका नामोनिशान भी नहीं रहता। एक स्थान पर एकनिष्ठ होकर जमे रहकर कम योग्यता और कम शक्ति वाले मनुष्य भी कुछ न कुछ सफलता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अनेक दिशाओं में चित्त को डुलाने और किसी भी काम में न जमने वाले शक्तिसम्पन्न और बुद्धिमान व्यक्ति भी महत्वपूर्ण कार्य कर पाने में असफल ही रहते हैं ।
व्यावहारिक जगत् में जैसे अनेक दिशाओं में चित्त को डुलाने वाला व्यक्ति असफल रहता है, वैसे ही आध्यात्मिक जगत् में अनेक दिशाओं में-आत्मनिष्ठा को छोड़कर मन, इन्द्रियों आदि के विषय-विकारों में भटकने वाले व्यक्ति भी असफल ही रहते हैं। वे निराश, हताश होकर अपने ही वैरी स्वयं हो जाते हैं, अपनी ही आत्महत्या कर बैठते हैं । ऐसे अनेक चित्तविभ्रान्त लोग आत्मनिष्ठा में जम नहीं पाते, उनमें बौद्धिक योग्यता, शारीरिक शक्ति और साधन सामग्री की प्रचुरता पर्याप्त होने पर भी वे आत्मनिष्ठ न होने से अनवस्थित रहते हैं, रात-दिन इसी संशय में पड़े रहते हैं—यह करूं या वह करूँ ? परन्तु कर कुछ भी नहीं पाते। एक व्यावहारिक दृष्टान्त द्वारा इस बात को स्पष्ट कर देता हूँ।
दुष्काल के दिन थे । एक व्यक्ति अपना घोड़ा लेकर सजल एवं उपजाऊ प्रदेश में जाने के लिए रवाना हुए। वहां पहुंचकर उसने एक हरा-भरा मैदान ढूंढ़ लिया और घोड़े को वहीं चरने के लिए छोड़कर स्वयं किसी आजीविका की खोज में निकल गया।
शाम को आकर देखा तो घोड़े के पेट में वैसे ही खड्डे पड़े थे, जैसे पहले थे। घोड़े का मालिक विचार में पड़ गया-मालूम होता है, सारे दिन भर में घोड़े ने कुछ भी नहीं खाया। शायद किसी जानवर का भय हो, किन्तु आस-पास खोज करने पर पता चला कि ऐसी बात यहाँ नहीं है। आखिर एक अनुभवी ने इस शंका का समाधान किया- "भाई ! यह घोड़ा सारे दिनभर भूखा रहा है, उसका कारण यह है कि घोड़ा इसी शंका-कुशंका में रहा कि यहाँ घास अच्छा है या वहाँ ? इसी उधेड़बुन में उसने इधर-उधर चक्कर लगाये हैं । फलतः यह घोड़ा भूखा ही रह गया है।"
इस घोड़े जैसी अनवस्थित चित्तवृत्ति वाले व्यक्ति एकनिष्ठ नहीं होते। वे अपना चित डांवाडोल करते रहते हैं और इस घोड़े की तरह उनकी सफलता की भूख मिटती नहीं । वे खाली के खाली ही रहते हैं ।
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