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अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३८३ भरोसा नहीं, ऐसे लोग अपने आत्मस्वरूप में अनवस्थित होते हैं। उन्हें उनकी आन्तरिक अपंगता सफलता का अधिकारी नहीं होने देती। सफलता के अवसर उनके द्वार तक आते हैं, पर वे आन्तरिक दुर्बलता के कारण उनका स्वागत नहीं कर पाते । धन, स्वास्थ्य, पद, सत्ता, शस्त्र, विद्या, सहयोग आदि सुविधाओं का कहने योग्य लाभ वे ही उठा सकते हैं, जो आत्म-शक्ति में स्थित हो, भीतर से बलवान हों। आन्तरिक दुर्बल लोगों के लिए तो सभी उपलब्धियां विपत्ति ही साबित होती हैं। जो आत्मशक्ति में अवस्थित नहीं हो पाते, वे भीतर से दुर्बल और खोखले हो जाते हैं, वे काम-क्रोधादि विकारों से जूझने और संघर्ष करने की बात ही नहीं सोच पाते । इस प्रकार वे अपने आप (आत्मा) के शत्रु बन जाते हैं। काम-क्रोधादि तो बाद में शत्रु बनते हैं। जब वे उन्हें आते ही अपने आत्मस्वरूपरूपी किले में सुरक्षित होकर काम-क्रोधादि को पपोलते ही नहीं, उनसे सम्पर्क ही नहीं रखते, तब वे उनके शत्रु बनने से रहे । काम-क्रोधादि उन्हीं के शत्रु बनते हैं, जो आत्मस्वरूपरूपी किले में अवस्थित न रहकर बाहर भागते हैं और काम-क्रोधादि को पपोलते हैं, उनका स्वागत करते हैं।
इसी प्रकार उस व्यक्ति की आत्मा भी अनवस्थित है, जिसका ध्यान आत्मा से हटकर सांसारिक पदार्थों या व्यक्तियों में आसक्तिपूर्वक जम जाता है। ऐसा व्यक्ति बात्मध्यान और आत्मचिन्तन भूलकर रात-दिन सांसारिक विषयों की उधेड़बुन में, भौतिक पदार्थों और इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति का ही ध्यान करता रहता है । शास्त्रीय, भाषा में कहें तो उसकी आत्मा धर्म-शुक्लध्यान से हटकर आतं-रौद्रध्यान में ही बटकी रहती है । जिन्दगी के अन्तिम क्षणों तक वे इन्द्रिय-विषयों एवं भौतिक पदार्थों की मोह-माया से निकलकर आत्मा के अटल ध्यान में जम नहीं पाते।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। रणक्षेत्र में जगह-जगह नरमुण्डों के ढेर पड़े थे। उन्हें खाने के लिए सैकड़ों कुत्ते, सियार और भेड़िये लपके चले आ रहे थे । महर्षि उत्तंक अपने शिष्यों के साथ उधर से निकले तो यह दृश्य देखकर उन्हें हंसी आ गई।
शिष्यों ने पूछा-"भगवन् ! इस दुःखद प्रसंग पर आपको हँसी क्यों आ गई ?" महर्षि ने उत्तर दिया-"वत्स ! जिन शरीरों के लिए युद्ध लड़ा गया, उनकी आज यह दशा है कि सियार उन्हें नोंच रहे हैं। यदि इतना ही ध्यान आत्मा का रखा गया होता तो यह बीभत्स परिस्थिति क्यों आती ?"
सचमुच, अनवस्थित आत्मा शरीर का ही ध्यान अधिक रखता है, आत्मा का नहीं। इसी कारण शत्रुता पैदा होती है, स्वयं आत्मा ही अपना शत्रु बन जाता है।
अनवस्थित व्यक्ति एकनिष्ठ-एकमात्र आत्मनिष्ठ नहीं होता। वह बारबार अपने विचार बदलता रहता है। संशय के झूले में झूलता रहकर वह किसी भी महान कार्य में सफलता नहीं कर पाता । एक साथ दो घोड़ों पर सवारी नहीं की जा सकती, वैसे ही एक साथ दो विरोधी विचारों पर चलना ठीक नहीं कहा जा सकता।
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