SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ आनन्द प्रवचन : भाग १० सवृत्ता गृहनीति-सस्मितमुखी दानोन्मुखी सन्मतिः, सन्तुष्टा विनयान्विताऽतिसुभगा श्रीरेव सा स्त्री ननु ॥ "जो नारी सद्धर्म में रत रहती है, विवेक से युक्त है, शान्त है, सती (पतिव्रता) है, सरलहृदया है, प्रत्येक सत्कार्य में उत्साही है, प्रियभाषिणी है, प्रत्येक कार्य में निपुण है, शुभ चिह्नों से युक्त है, सद्गुणों से पूर्ण है, सच्चरित्र है, गृहनीति में कुशल है, सदा प्रसन्नमुखी रहती है, दान में तत्पर रहती है, सद्बुद्धियुक्त है, यथालाभ सन्तुष्ट रहती है, विनय गुण से युक्त है, सौभाग्यशालिनी है, वह स्त्री वास्तव में श्रीलक्ष्मी है। वास्तव में पतिव्रता का भारतीय संस्कृति में इसीलिए पूज्यस्थान है कि वह अपने और पति के सम्पूर्ण जीवन विकास के लिए प्रयत्नशील रहती है। वह लौकिक सुख एवं आत्म-विकास दोनों में समान रूप से सहायक होती है। इस दिशा में जब तक पतिव्रता नारियों का सहयोग नहीं मिलता, तब तक लोक-परलोक कुछ भी नहीं साधता। पतिव्रतधर्म का पालन सुसंतति को जन्म देने की दृष्टि से भी परम आवश्यक है । बालकों से ही किसी परिवार का भविष्य उज्ज्वल बनता है । अपने वंश कुल और परिवार का गौरव बढ़ाने वाले बालक वहीं जन्म लेगे, जहाँ माता ने पतिव्रत धर्म को उचित महत्व दिया होगा। यह तत्त्व जहां जितना कम होगा, वहाँ उसी अनुपात में बालकों के शरीर और मन में अगणित विकृतियां भरी रहेगी। इसलिए पतिव्रता का दूसरा नाम बताया है-'शुद्धानारी पतिव्रता' पवित्रनारी का ही दूसरा नाम पतिव्रता है। चाणक्य नीति में स्पष्ट बताया है सा भार्या या शुचिर्दक्षा, सा भार्या या पतिव्रता । सा भार्या या पतिप्रीता, सा च या सत्यवादिनी ॥ "सच्ची पत्नी वही है, जो पवित्रहृदया हो, कार्यदक्ष हो, पतिव्रता हो, पति के प्रति प्रीति करने वाली हो, और सत्य बोलने वाली हो। पश्चिम की स्थिति का अध्ययन करें तो आप आश्चर्यचकित हो उठेगे कि वहाँ पतिव्रतधर्म को समझने का प्रयास ही बहुत कम किया जाता है । वहाँ की स्त्रियाँ अपने पतियों की आलोचना और अवहेलना करने के लिए स्वतन्त्र हैं जबकि भारतीय नारी स्वयं अपने पति की आलोचना, निन्दा, अवहेलना और उपेक्षा की बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकती। पाश्चात्य नारीवर्ग और पुरुषवर्ग परस्पर एकदूसरे की निन्दा के लिए कटिबद्ध रहते हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच विवाह के बाद से ही एक दूसरे के प्रति शंकास्पद दृष्टि पनपने लगती है । संघर्ष के लिए इतना ही काफी है। पुरुष स्वाभिमानवश झुकता नहीं और स्त्री को कानूनी अधिकार झुकने नहीं देता । फिर समझौते की कोई आशा नहीं रहती। यही कारण है कि पश्चिमीय जनता के जीवन तलाक से भरे पड़े हैं । वहाँ का दाम्पत्यजीवन क्लेश, कलह और घृणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy