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पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती
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कितनी तप-त्याग की भावना थी, इस उत्तर में ! जवाहर आये स्वदेश को गुलामी से मुक्त करने, उधर जीवनसंगिनी कमला इस दुनिया से सदा के लिए चल
बसीं ।
पतिव्रता : सर्वांगीण स्वरूप और उद्देश्य
पतिव्रता का अर्थ यौन- सदाचार तक ही सीमित नहीं है । वह तो उसका एक अत्यावश्यक अंग है । पतिव्रता स्वप्न में भी पर-पुरुष का चिन्तन नहीं करती, परपुरुष के प्रति कुदृष्टि नहीं करती और न ही पर-पुरुष को काम कुचेष्टाओं से आकर्षित करके उसके साथ कुकर्म करती है । पतिव्रता की पहिचान का यह छोटा-सा अंगमात्र है । वास्तव में आत्मसमर्पण ही पतिव्रता का मुख्य धर्म है । इस आध्यात्मिक माध्यम को अपनाने वाली नारी अहंताजन्य एवं स्वच्छ-देच्छाजन्य अगणित पाप-दोषों से मुक्त होकर द्वैत की मंजिल पार करती हुई अद्वैत की जीवन स्थिति प्राप्त कर लेती है ।
पतिव्रता स्त्री का अर्थ केवल पर-पुरुष से परहेज रखना मात्र ही हो तो पति के साथ कलह, विवाद, झगड़ा, मारपीट करने वाली, पति के आर्थिक पहलू पर जरा भी विचार न करने वाली, पति के घर में से अमुक चीजें चुराकर या चुपके से उठा कर अपने पीहर भेज देने वाली बेवफा पत्नी भी पतिव्रता कहलायेगी ।
इसलिए पतिव्रता का लक्षण पद्म पुराण में इस प्रकार दिया हैकार्ये दासी रतौ रम्भा, भोजने जननीसमा । विपत्तौ मंत्रिणो भर्तुः, सा च भार्या पतिव्रता ॥ " जो कार्य के समय दासी, रति के और विपत्ति के समय पति को सद्बुद्धि एवं पतिव्रता है ।"
समय रम्भा है, भोजन के समय माता है, परामर्श देने वाली मन्त्रिणी है, वही स्त्री
व्यावहारिक रूप से पतिव्रता का अर्थ जीवन की सम्पूर्ण प्रवृत्तियों और समस्याओं पर पति की सहधर्मिणी, सहचारिणी और सहयोगिनी बनकर रहना है । जिस रूप में धर्मपत्नी को लगा दिया जाय, जैसी पति की स्थिति हो, तदनुरूप अपने आपको ढाल देना और उसी में सुखानुभव करना ही पतिव्रता जीवन का उद्देश्य है । वस्तुत: यह साधना पतिव्रत धर्म का मुख्य अंग है । इसी से चरित्रनिष्ठा और जीवन की सर्वांगीण समस्याओं में दृढ़ता बढ़ती है । केवल यौन - सदाचार को स्थिर रखने से इस मर्यादा की पूर्णता नहीं हो जाती । अपितु सामूहिक विकास के आधार रूप में वह जीवन भर चलती है ।
इसी कारण एक आचार्य ने पतिव्रता के सर्वांगीण जीवन का चित्रण इस प्रकार किया है
या सद्धर्मरता विवेककलिता शान्ता सती सार्जवा, सोत्साहा प्रियभाषिणी सुनिपुणा सल्लक्षणा सद्गुणा ।
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