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________________ ३५८ आनन्द प्रवचन : भाग १० का जीवन स्वीकार कर लिया, सिरिमा ने भी बौद्धभिक्षुणी बनकर पति का अनुसरण किया । हाँ, तो मैं कह रहा था कि पति-पत्नी दोनों एक दूसरे के इच्छानुवर्ती, सहगामी बन जाएँ, तो संघर्ष का कोई कारण नहीं रहता । किन्तु दोनों में से पति अगर विरुद्ध हो, उसके साथ मतभेद हो तो संघर्ष किए बिना ही अपनी सद्भावना शक्ति से भी बहुत कुछ समस्या हल हो सकती है । पति सुधरा हुआ हो, तब तो कहना ही क्या, परन्तु यदि उसका स्तर घटिया हो; विचार, चरित्र एवं व्यवहार की दृष्टि से वह सामान्य पति की स्थिति से भी नीचा हो, बात-बात में कलह और मार-पीट पर उतारू हो जाता हो, शराबी, जुआरी, वेश्यागामी या परस्त्रीगामी हो, अनैतिक आचरण करता हो, तो उस स्थिति में भी यदि संतोषी स्वभाव की, कष्टसहिष्णु, परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालने वाली, कर्तव्यपरायण, प्रसन्नमुखी एवं विनम्र स्वभाव की पत्नी हो तो वह पारिवारिक कलह एवं संघर्ष को टाल सकती है । परिवार में शान्ति और अमन-चैन बनाये रख सकती है । धन, समृद्धि और अन्य सुख-सुविधाएँ घर में चाहे कितनी ही हों, पति के विपरीत स्वभाव को अपने त्याग तप से बदलने वाली एवं गृह-शान्ति सुरक्षित रख सकने वाली, पतिभक्ता गृहिणी न हो तो सब कुछ बेकार है । पतिव्रता स्त्री धन, समृद्धि और सुखसाधन न हो, तो भी सन्तोष से शान्तिपूर्वक जीवनयापन कर सकती है । सन्त कबीर ने कहा पतिबरता मंली भली, गले कांच को पोत । सब सखियन में यों दिपे, ज्यों रवि-ससि को ज्योत ॥ जिस घर में ऐसी त्याग, तप और प्रेम की शक्तिवाली देवियाँ रहती हैं, वहाँ सुख-शान्ति को भी विवश होकर रहना पड़ता है । पतिव्रता पति के धर्म को सुरक्षित रखने वाली पतिव्रता स्त्री पति को अपने से अभिन्न मानती है, तब वह जिस शुद्ध धर्म के आचरण को अच्छा मानती है, उसके पालन की अपने पति से भी अपेक्षा रखती है । जहां तक वश चलता है, वह पति को प्रेम से त्याग तप से सन्मार्ग पर लाने की कोशिश करती है । , भरूच के न्यायाधीश का एक प्रसंग है । वे सुबह अपने दीवानखाने में बैठे हुए थे। उनकी धर्मपत्नी भी पास में बैठी कुछ बात कर रही थी कि सहसा एक व्यक्ति फलों की टोकरियाँ तथा मिठाई लेकर आया और ५० हजार के नोटों की गड्डी न्यायाधीश के हाथ में थमाते हुए बोला – “लीजिए साहब ! यह मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए।" न्यायाधीश जानते थे कि यह किस बात की इतनी बड़ी राशि दे रहा है । न्यायाधीश को यह सब भेंट करके आगंतुक चला गया । अपनी गर्वित मुखमुद्रा से पत्नी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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