SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३५६ की ओर देखकर न्यायाधीश मुस्कराए । परन्तु पत्नी का चेहरा उदास देख कर वे बोले - " आज सुबह - सुबह इतनी अच्छी कमाई हुई है; फिर भी तुम अप्रसन्न क्यों हो, क्या बात है ?" न्यायाधीश की पत्नी बोली - "यह व्यक्ति इतने रुपये और यह चीजें किसलिए दे गया है ?" न्यायाधीश ने कहा - "यह तो मेरी मेहनत से प्रसन्न होकर मुझे दे गया है ?" पत्नी - " आपने क्या मेहनत की है, जिससे इतने रुपये आपको दे गया ?" न्यायाधीश - " मैंने उसके दूर के रिश्तेदार को निकट का रिश्तेदार सिद्ध करके मरने के बाद उसकी सारी सम्पत्ति उसे दिलाई है । उसकी खुशी में यह मुझे भेंट दे गया है ।" पत्नी - " अगर इसके असली वारिस को आप जिताते और उससे आपको अपने पारिश्रमिक के ५० रुपये भी मिलते तो वे हक के होते। यह रकम तो अनीति से उपार्जित है, हराम की कमाई है। इससे मुझे कोई प्रसन्नता नहीं । आप यह रकम वापस लौटा दीजिए ।" न्यायाधीश – " अगर तुम्हारी तरह सभी इस तरह आई हुई लक्ष्मी को ठुकराने लगें तो काम कैसे चलेगा ? हमें अभी बच्चों को पढ़ाना-लिखाना है, उनकी शादी करनी है । फकीर नहीं बन गए हैं हम ।" पत्नी - " मैं नहीं जानती थी कि न्याय के आसन पर बैठकर आप अन्याय करते हैं ? अनीति की कमाई का हमें एक पैसा भी नहीं चाहिए। यह हम सब की बुद्धि बिगाड़ेगा | बच्चों के संस्कार खराब करेगा। पढ़ाई-लिखाई या शादी आदि गरीबों के बच्चों के होते हैं, वैसे ही हमारे बच्चों के हो जाएँगे ।" न्यायाधीश - " अपनी पोजीशन के अनुसार मुझे और तुम्हें भी अच्छे कपड़े, गहने और बढ़िया खान-पान चाहिए ।" पत्नी - "हमारे पास जितना पैसा होगा, उसी के अनुसार हम चला लेंगे, लेकिन हराम का एक पैसा भी मुझे नहीं चाहिए। मैं कूट-पीसकर, मेहनत-मजदूरी करके अपने घर का खर्च चला लूंगी, मोटे कपड़े और मोटा अनाज खाकर निर्वाह कर लूंगी, परन्तु इस प्रकार का अनीति का द्रव्य मुझे नहीं चाहिए ।" न्यायाधीश - " मेरी ओर से रहने दो। तुम इसका उपयोग न करना । फिर तुम्हें इस धन को रखने में क्या हर्ज है ?" ---- पत्नी- " मेरा भी तो इसमें हिस्सा है । मैं परलोक में भगवान के सामने क्या जवाब दूंगी। मेरे बच्चों के पेट में इस पैसे का अन्न पड़कर बुरे संस्कार पैदा करेगा । इसलिए इसे आज ही वापस लोट आइए, अन्यथा, मैं तब तक कुछ भी खाऊँगीपीऊँगी नहीं ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy