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________________ ३४० आनन्द प्रवचन : भाग १० में सिर्फ दो व्यक्ति थे। शाम को राजा और मन्त्री दोनों आए। सफेद तम्बू का द्वार खोला गया। सर्वप्रथम एक व्यापारी निकला, राजा श्रेणिक ने उससे पूछा-"दिन भर तो तुम दूकान पर बैठकर ग्राहकों को ठगते हो, फिर सफेद तम्बू में कैसे आये ?" व्यापारी बोला-"हम सामायिक करते हैं, मन्दिर में जाकर अर्चा-पूजा करते हैं, कबूतरों को अनाज डालते हैं, गरीबों को भी कुछ दान करते हैं, इसलिए धर्मी हैं। महाराज ! ग्राहक को तो चीज देकर पैसा लेते हैं, इसमें ठगाई कैसी ?" फिर राजा ने अधिकारियों व न्यायाधीश आदि से पूछा-"तुम तो प्रजा पर अत्याचार करते हो, निर्दोष को फंसा देते हो, फिर धर्मी कैसे ?" उन्होंने कहा-"हम तो राजा के पक्के वफादार हैं, हम ही राज्य टिकाये हुए हैं, उनकी भलाई करते हैं । इसलिए धर्मी हैं।" राजा ने फिर वेश्या, भंगड़ी, चोर, जुआरी, मजदूर, कसाई, व्यभिचारी आदि सबसे पूछा । सबने अपनी-अपनी सफाई पेश की । अन्त में राजा ने काले तम्बू का द्वार खुलवाया तो उसमें सिर्फ दो सगे भाई थे। जो सारे शहर में सदाचारी, धर्मात्मा और पुण्यशाली के रूप में प्रसिद्ध थे। राजा ने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा-"हम वास्तव में अधर्मी हैं, क्योंकि हमने शराब न पीने की प्रतिज्ञा ली थी, लेकिन हमारी बीमारी में हमारे अनजाने में वैद्य ने दवा के साथ शराब दे दी, बाद में हमें मालूम पड़ा । इस कारण प्रतिज्ञा-भंग का पाप हमारे सिर पर है।" अभयकुमार ने कहा- "देख लीजिए महाराज ! दिखने वाले धर्मी अधिक हैं या अधर्मी ? मेरी दृष्टि से वास्तविक धर्मी वह है जो निष्ठापूर्वक सर्वत्र शुद्ध धर्म का आचरण करता है, जिसके हृदय में पाप की घृणा हो, उसे करते हुए दिल कांपता हो।" धर्म-अधर्म के विषय में ऐसा निर्णय वही मन्त्री दे सकता है जो शास्त्रज्ञ और धर्मनिष्ठ हो। इसके अतिरिक्त मन्त्री ऐसा विचक्षण हो, जो दूसरों की कपट-क्रिया को भांप सके, तथा सुवक्ता हो, अपनी बात को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर सके, क्रोधी न हो, क्योकि क्रोध आने पर मन्त्री अपने कार्य में असफल हो जाता है । बल्कि हर हाल में जो खुश रह सकता हो, वही प्रसन्नमुख वाला मन्त्री अच्छा माना जाता है । चीन के राजा क्वांग के प्रधानमन्त्री का नाम था- "सुनशू आओ। राजा ने एक बार उसे अपने पद से हटा दिया। कुछ ही दिनों बाद उसे पुनः प्रधानमन्त्री बना दिया । तीन बार इस घटना की आवृत्ति हुई, लेकिन सुनशू आओ इन प्रसंगों पर न कभी प्रसन्न हुआ, न अप्रसन्न । वह निलिप्तता से अपने कार्य में जुटा रहा। एक दिन राजा ने प्रधानमन्त्री से इसका कारण पूछा तो सुनशू आओ ने उत्तर दिया-"जब मुझे प्रधानमन्त्री पद दिया गया, तब मैंने सोचा-सम्मान को ठुकराना उचित नहीं, जब मैं पदच्युत किया गया, तब मैंने सोचा-जहाँ आवश्यकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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