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________________ राजमन्त्री बुद्धिमान सोहता ३४१ नहीं है, वहाँ पर चिपके रहना बेकार है । फिर प्रश्न उठता है कि वह सम्मान किसका है ? मेरा है या पद का ? यदि पद का है तो उसमें मुझे क्या लेना-देना है ? यदि मेरा है तो चाहे पद रहे या जाए इसमें क्या फर्क पड़ेगा ?" राजा समझ गया कि जो मन्त्री प्रसन्नता और अप्रसन्नता के प्रसंगों पर सम रहता है, वही निःस्पृह, निर्लोभी और राज्य का सच्चा हितैषी हो सकता है। मित्र एवं स्व-पर पर सम-जो सच्चा मन्त्री होता है, वह न्यायनिष्ठ होता है । वह न्याय के मामले में अपने पराये का कोई लिहाज नहीं रखता। चाहे उसके पास कोई गरीब फरियाद लेकर आए या धनवान, वह सबकी फरियाद गौर से सुनता है और उस पर गहराई से विचार करता है। व्यवहार देखकर उत्तर देने वाला-मन्त्री व्यवहार-विचक्षण होता है। वह जीवन के काफी उतार-चढ़ाव देखा हुआ अनुभवी होता है । उसकी बुद्धि अनुभव की आंच में तपी हुई होती है। जिस बात का हल न्यायाधीश, पण्डित, विद्वान वा व्यापारी नहीं कर सकते, उसका हल व्यवहार-विचक्षण मन्त्री शीघ्र ही कर सकता है । भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे सैकड़ों व्यवहार-विचक्षण मन्त्रियों के उदाहरण हैं । जहाँ एक पुत्र के लिए दो माताएँ दावा करती हों, दो व्यक्तियों में से बिना साक्षी और प्रमाण के वास्तविक अपराधी-निरपराधी का पता लगाना हो, जहाँ राजा की बुद्धि भी किसी समस्या को हल करने में हार खा जाती हो, वहाँ मन्त्री की विचक्षण प्रतिभासम्पन्न व्यवहार बुद्धि काम आती है। शिष्ट-पालक : दुष्टनिग्राहक-मन्त्री में दोनों प्रकार की शक्ति होनी चाहिएरक्षण की और दमन की । जो सज्जन, सभ्य, सुविनीत और शिष्ट हैं, उन पर अन्याय अत्याचार होता हो तो उनकी सुरक्षा करना मन्त्री का कर्तव्य है, साथ ही दुष्टों और दुर्जनों, ठगों और शठों का दमन करने की शक्ति भी उसमें होनी चाहिए; ताकि ऐसे लोग जनता पर हावी न हो जाएँ। आज भारत में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में इतना भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लालफीताशाही या गैर-जिम्मेवारी है कि वे छोटे-से काम को झटपट करके नहीं देते, गरीब आदमी बार-बार उसके महकमे में चक्कर काटता है, मगर उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती, रिश्वत देने पर भी वह धीरे-से सरकता है । मगर मन्त्री को पता लगने पर ये बातें उसके लिए असह्य होनी चाहिए। भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय, उद्दण्डता, चोरी आदि चाहे सरकार में हो या जनता में, मन्त्री के लिए वह सह्य न होनी चाहिए। __ मन्त्री मिष्ठ तो होना ही चाहिए। अधार्मिक या पापात्मा मन्त्री तो शासन, शासक और जनता सबका उत्पीड़न, शोषण और विनाश कर बैठता है। कार्यार्थी मन्त्री ही शासन की उन्नति कर सकता है। जो केवल बातूनी है, लम्बे-चौड़े भाषण देना ही जानता है, बड़े-बड़े वादे ही जनता के सामने करता है, वह मन्त्री केवल वाणी-शूर होता है । मन्त्री में कम बोलने और अधिक करने का गुण होना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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