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________________ ३३८ आनन्द प्रवचन : भाग १० ने बिलम्ब के लिए क्षमा मांगते हुए उनसे आने का प्रयोजन पूछा । उनके साधु चरित्र को देखकर कारथेज वालों के होश गुम हो गये और उन्हें उपहार भेंट करने तथा प्रस्ताव रखने की हिम्मत न हुई। बार-बार पूछे जाने पर उन्होंने अपने आने का प्रयोजन बताया। प्रधानमन्त्री ने उनकी बात बड़े गौर से सुनी और उनसे प्रभावित होकर आश्वासन दिया कि वह उनकी सहायता करने की भरपूर चेष्टा करेंगे। राजसभा के समक्ष प्रधानमन्त्री ने कारथेज वालों की बातें रखीं और निर्णय कराया कि भविष्य में रोम कारथेज पर हमला नहीं करेगा। सचमुच रोम का प्रधानमन्त्री देशकाल की परिस्थिति से पूर्णतः परिचित हो गया और उसने सोच लिया-कारथेज जैसे छोटे-से निर्धन टापू पर हमला करने से रोम को कोई भी लाभ न होगा, सिवाय शत्रुता बढ़ाने के । इसके विपरीत अगर उसके साथ सन्धि कर ली गई तो भविष्य में उसके समृद्ध होने से रोम को उससे आर्थिक लाभ और जन सहयोग भी मिलेगा। यही मन्त्री की देशकालोचित कदम उठाने की विशेषता है। राजभक्त-शासक या शासन के प्रति जिसकी पूर्ण भक्ति एवं वफादारी हो, वही मन्त्री उत्तम माना जाता है । जो मन्त्री शासक या शासन के प्रति खिंचा-खिंचा रहता हो, हित-चिन्ता न करता हो, दूसरे राजा या राज्य से लगाव हो, रिश्वत या अन्य प्रलोभन के वश होकर जो राजा या राज्य से विमुख रहता हो, वह मन्त्री किसी काम का नहीं है, वह राज्य का शत्रु है, द्रोही है । वह विश्वसनीय नहीं होता । विश्वस्त और राजभक्त मन्त्री वह होता है, जो राजा की नाराजी की परवाह न करके भी उसके व शासन के हित के लिए समय पर राजा को सावधान कर सकता हो, उत्पथ पर जाने से रोक सकता हो । एक राजा विषय-भोग में इतना फँस गया कि रात-दिन अन्त:पुर में पड़ा रहता था, उसे राज-काज का बिलकुल भान नहीं रहा। राजभक्त प्रधान अन्तःपुर के दरवाजे पर जाकर कहलाता पर विषयान्ध राजा कुछ भी न सुनता । एक दिन प्रधान ने इस आशय का एक पत्र लिखकर अन्तःपुर के द्वारपाल के साथ भेजा कि राज्य में अन्धेरगर्दी चल रही है। इसलिए अब अन्तःपुर में रहने का समय नहीं । अन्यथा, बाद में पछताना पड़ेगा। राजा ने इस पत्र का कोई उत्तर न दिया, किन्तु रानियों ने प्रधान को धक्का देकर निकलवा दिया, और यह भी हिदायत दी कि अगर फिर कभी अन्तःपुर के द्वार पर आ जाय तो पीट डालना । जाते-जाते प्रधान को विचार आया कि राजा ने अपने हित की बात न सुनी, उलटे मेरा अपमान कराया । जितनी प्रीति मुझे राजा व राज्य के प्रति है, अगर उतनी ही प्रीति भगवान पर रखू तो वे अवश्य ही मिल जायेंगे। यों सोचकर वह निकटवर्ती वन में जाकर भगवान का जप व स्तुति करने लगा। प्रधान के चले जाने से राज्य में गड़बड़ मच गई । राजा को प्रधान की जरूरत पड़ी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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