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________________ ३२६ आनन्द प्रवचन : भाग १० लग रहे थे, मानो आपस में बातें कर रहे हों। बादशाह की दृष्टि सहसा उस कबूतर की जोड़ी पर पड़ी। बादशाह ने मन्त्री से पूछा- “वजीरेआजम ! हम लोगों की तरह आखिर ये दोनों कबूतर किस विषय पर बात कर रहे हैं ?" __मन्त्री ने गम्भीर होकर कहा-"हां, जहाँपनाह ! कुछ ऐसी ही बात जान पड़ती है । मैं भी कबूतरों की भाषा जानता हूं।" बादशाह बोला-"तो फिर इस बात का पता लगाओ कि ये क्या बात कर रहे हैं ?" मन्त्री ने कहा-"हजूर ! इसके लिए मुझे उनके पास तक जाना होगा।" मन्त्री को अच्छा अवसर हाथ लग गया, बादशाह को समझाने का । वह पेड़ के नीचे गया, कुछ देर वहां खड़ा रहा, मानो गम्भीर होकर उनकी बात सुन रहा हो। फिर लौटकर महमूद गजनवी के पास आ गया । आते ही उसने पूछा-"वजीरेआजम ! शीघ्र ही बताओ कि आखिर कबूतर की जोड़ी आपस में क्या बातें कर रही है ?" __ मन्त्री जरा चिन्तामग्न हो उठा, उसके सामने मृत्यु नाचने लगी। किन्तु बादशाह ने कहा- "घबराएं नहीं, साफ-साफ बताइए।" । वजीर ने कहा- 'जहाँपनाह ! इन दोनों में एक लड़की वाला है और दूसरा है-लड़के वाला। विवाह की बातें तय की जा रही हैं। लड़के वाले ने दहेज के रूप में ५०० उजाड़ गांवों की माँग की।" इस पर लड़की वाले ने कहा-"कुछ दिन और ठहर जाएँ, यहाँ बादशाह के अत्याचार के कारण प्रजा देश छोड़कर भाग रही है। शीघ्र ही गाँव के गाँव खाली हो जाएंगे, फिर तुम्हारी माँगें पूरी कर दी जाएंगी।" बादशाह वजीर की बात सुनकर दंग रह गया। कहते हैं, इतनी बात सुनते ही महमूद गजनवी की बुद्धि बदल गई । तब से उसने प्रजा पर अन्याय-अत्याचार करना छोड़ दिया। वह प्रजा को हृदय से प्यार करने लगा। __ अगर मन्त्रीरूपी स्तम्भ ठीक न होता तो गजनी के राज्य का तख्ता उलट गया होता । यह मन्त्री ही था जिसने बादशाह को युक्ति से, सूझ-बूझ से समझाकर उसकी प्रकृति बदल दी। फलभागी राजा, कार्यभागी मन्त्री राजा प्रायः राज्य के अच्छे-बुरे होने पर फल-अफल का भोक्ता होता है । राज्य के सुस्थिर, सुदृढ़ और प्रजाहितचिन्तक होने पर राजा को भी उसका सुफल मिलता है, उसे भी प्रतिष्ठा, सम्मान एवं कर आदि मिलता है, परन्तु राज्य अन्यायअनीति प्रधान हो जाए, प्रजा को त्रास पहुँचाए तो राजा को भी बदनामी, बेइज्जती, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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