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________________ राजमन्त्री बुद्धिमान लोहता ३२५ होती है । इसीलिए राजा और मन्त्री का अटूट सम्बन्ध है। राजा का मन्त्री के साथ यह अटूट सम्बन्ध तभी रह सकता है, जब मन्त्री राजभक्त, बुद्धिमान और कार्यकुशल हो। मन्त्रीरूप स्तम्भ राज्य मन्दिर को सुदृढ़ रखने के लिए आवश्यक आत्मा भी एक शासक-राजा है, उसका मन्त्री मन है। आत्मारूपी शासक के लिए मनरूपी मन्त्री का कुशल, बुद्धिमान और आत्मभक्त होना आवश्यक है। अन्यथा, मन इन्द्रियों को विपरीत पथ पर ले जाकर आत्मा को भटका सकता है, आत्मा का विकास रोक सकता है, उसको सिद्धान्त से स्खलित करा सकता है। इसी प्रकार मन्त्री भी राज्यकर्ता के लिए कुशल, राजभक्त और बुद्धिमान होना आवश्यक है। इसीलिए नीतिकार कहते हैं अन्तःसालेरकुटिलेरच्छिद्रः सुपरीक्षितैः । मन्त्रिभिर्धार्थते राज्यं सुस्तम्भरिव मन्दिरम् ॥ जैसे किसी मन्दिर या भवन को ऐसे सुदृढ़ सुस्तम्भ ही टिकाए रख सकते हैं, जो अन्दर से थोथे न हों, टेढ़े-मेढ़े न हों, उनमें छेद या दरार न हों, अच्छी तरह से वे देख-परखकर लगाये गए हों, वैसे ही उन्हीं मन्त्रियों द्वारा राज्य चिरकाल तक सुस्थिर, मजबूत और सुदृढ़ रह सकता है, जो मनोबली हो, जिनका अन्तरंग सुदृढ़ हो, जो कुटिल न हों-सरल हों, छिद्रान्वेषी न हों, और भली-भांति देखे-परखे हों। ___एक पाश्चात्य विचारक जॉन हॉल (John Hall) ने शासन के लिए मन्त्री कैसा होना चाहिए ? इस सम्बन्ध में सुन्दर विचार दिये हैं "The minister is to be a real man a love man, a true man, a simple man; great in his love, in his life, in his work, in his simplicity, in his gentleness. "मन्त्री एक वास्तविक मनुष्य, एक प्रेमीजन, एक सच्चा आदमी और एक सादा-सीधा मानव होना चाहिए; जो अपने प्रेम से महान हो, जिन्दगी से महान हो और अपने कार्यों से, अपनी सादगी और अपनी सज्जनता से महान हो।" गजनी के इतिहास की एक सुन्दर घटना इस पर प्रकाश डालती है । महमूद गजनवी अपनी प्रजा के लिए एक आफत था। उसकी आज्ञा के विरुद्ध मुंह खोलना मौत के मुंह में जाना था। उसके त्रास और आतंक से प्रजा अपने देश को छोड़कर भागती चली जा रही थी। बुद्धिमान वजीर चाहते हुए भी उसकी बातों का विरोध नहीं कर सकता था। वह हृदय से चाहता था कि बादशाह की बुद्धि ठीक हो जाए, प्रजा सुख-चैन की सांस ले, लेकिन उसके सुधार के लिए वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। ___ एक दिन महमूद गजनवी अपने वजीर के साथ राजमहल में बैठा बातें कर रहा था। वहीं दरबार के बाग के एक पेड़ की डाली पर बैठे दो कबूतर इस तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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