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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३२३ तीनों के प्रत्युत्तर पर करकण्डु ने समाधान करते हुए कहा- "मुनिवरो ! इसमें आलोचना किस बात की ? यदि कोई मुमुक्षु साधक शुद्ध सरल निश्छल हृदय से किसी की गलती या दुःस्वभावजनित दोष के निवारण के लिए कुछ कहता है तो हितकर वचन है, निन्दा नहीं। निन्दा तो क्रोध, द्वेष या ईर्ष्यावश की जाती है, जो मोक्षपथ के साधक के लिए त्याज्य है।"
करकण्डु की इस बात पर तीनों प्रत्येकबुद्ध प्रसन्न हुए और उन्होंने धन्यवाद दिया। अन्यदा चारों ही प्रत्येकबुद्ध वहाँ से विहार करके अन्यत्र विचरण करने लगे। कालान्तर में केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में पहुँचे ।
____सारांश यह है कि अकिंचनता की साधना में सूक्ष्म दोष भी आ जाए तो शीघ्र ही उसकी शुद्धि करनी चाहिए । इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा है
अकिंचणो सोहइ दिक्खधारी।
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