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आनन्द प्रवचन : भाग १०
है। जैन इतिहास में चार प्रत्येकबुद्ध साधकों की जीवनगाथाएँ मिलती हैं। वे इतिहास-प्रसिद्ध चार प्रत्येकबुद्ध हैं
(१) कलिंगराज करकण्डु, (२) पांचालपति द्विमुख, (३) विदेहराज नमि, (४) गान्धारनरेश नग्गति ।
इनके विस्तृत जीवन-चरित्र का वर्णन मुझे यहां नहीं करना है, मुझे तो यहाँ यह बताना है कि उनके अपरिग्रही अकिंचन जीवन में जरा-से तुच्छ पदार्थ का मोह कैसे आ गया और उन्हें खटक जाने से अविलम्ब ही उन्होंने कैसे उस भूल का परिमार्जन करके अपनी अकिंचनता को विशुद्ध बनाया।
सम्बोधिप्राप्त चारों प्रत्येकबुद्ध भूमण्डल पर विचरण करते हुए एक बार क्षितिप्रतिष्ठ नामक नगर में पधारे । वहाँ एक चतुर्मुख यक्ष का चार द्वारों वाला चैत्य था । करकण्डु प्रत्येकबुद्ध उसमें पूर्व द्वार से आये । तत्पश्चात् दक्षिण द्वार से द्विमुख प्रत्येकबुद्ध प्रविष्ट हुए। कुछ ही देर बाद नमि प्रत्येकबुद्ध ने पश्चिम द्वार से
और नग्गति प्रत्येकबुद्ध ने उत्तर द्वार से उस चैत्य में प्रवेश किया। यों अकस्मात् ही चारों प्रत्येकबुद्धों का वहाँ मंगल-मिलन हो गया।
करकण्डु को बचपन से ही शरीर में खुजली की शिकायत थी। इसलिए वे अब भी शरीर को खुजलाने के लिए बाँस की एक छोटी-सी सलाई अपने पास रखते थे। यहाँ आने के बाद ज्यों ही खुजली हुई, करकण्डु ने उस सलाई से शरीर खुजलाया, फिर उसे अपने रजोहरण में छिपाकर रख लिया। यह देख द्विमूख प्रत्येकबुद्ध मुस्कराकर बोले-"मुने ! आपने विशाल राज्य का त्याग कर दिया, समस्त वैभव और कंचन-कामिनी का त्याग करके विरक्त होकर अकिंचन अनगार बन गये। फिर आपने यह बाँस की सलाई क्यों छिपा रखी है ? यह भी तो परिग्रह ही है।"
करकण्डु के उत्तर देने से पहले ही नमि प्रत्येकबुद्ध द्विमुख की ओर देखकर बोले-"मुनिवर ! आप भी राज्य, वैभव, सुख-साधन और दास आदि बाह्य और हास्यादि ६ नोकषायों, ४ कषायों, मिथ्यात्व, इन आभ्यन्तर ग्रन्थियों (परिग्रह) का परित्याग करके निर्ग्रन्थ बने हैं, फिर अब आप किसी के दोष क्यों देखते हैं ? दूसरों के दोष देखना भी तो एक प्रकार से आभ्यन्तर ग्रन्थिरूप परिग्रह है, दोषों की दासता है।"
नमि के उत्तर पर द्विमुख मौन रहे, अन्तनिरीक्षण करने लगे । तभी नग्गति द्विमुख की ओर दृष्टि घुमाकर बोले-"जब हमने सब कुछ परित्याग कर दिया है तो, हमें अब निःस्पृहभाव से रत्नत्रय की आराधना में पुरुषार्थ करके अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष पाना चाहिए, अपना समय दूसरों की निन्दा और आलोचना में नहीं खोना चाहिए।"
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