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________________ दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३२१ फिर वे छत्रपति शिवाजी से कहते हैं- "मेरे लिए चींटी और सम्राट दोनों एक-से हैं । सोना और मिट्टी दोनों बराबर हैं । मोह और आशा तो कलिकाल की फाँसियाँ हैं । मैं इनसे छूट-सा गया हूँ । सारा बैकुण्ठ मानो मेरे यहाँ घर बैठे ही आ गया है । मुझे किस बात की कमी है ? मैं तो त्रिलोकी के सारे वैभव का धनी बन गया हूँ। सबके स्वामी भगवान मुझे माता-पिता के रूप में मिल गये हैं। अब मुझे और क्या चाहिए ? त्रिभुवन का सारा बल, सारी सत्ता भगवान की ओर से विरासत में मुझे मिल गई है । आप मुझे दे ही क्या सकते हैं ? मैं तो विट्ठल (प्रभु) को चाहता हूँ। आप मुझे धन क्या देते हैं, धन तो तुकाराम के लिए गोमांस के समान है । यदि कुछ देना चाहें तो इन बातों की आपसे तुका की आशा है (१) मुख से विट्ठल-विट्ठल कहिये, (२) गले में तुलसी की कंठी पहनिए, (३) एकादशी का व्रत कीजिए, (४) हरि (प्रभु) के दास कहलाइए। बड़े बड़े पर्वत सोने के बनाये जा सकते हैं। वन के तमाम पेड़ों को कल्पतरु बनाया जा सकता है, नदियों और समुद्रों को अमृत से भरा जा सकता है, सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यह सब हो सकता है, लेकिन प्रभु के चरणों का प्रेम प्राप्त करना परम दुर्लभ है । इन सब सिद्धियों से भगवच्चरणों का लाभ नहीं होता । विठ्ठल के परम दुर्लभ, परम पावन, परमानन्दप्रद श्रीचरण मुझे मिल गये हैं, इनके समक्ष अब मैं मशालों, छत्रों, घोड़ों आदि को कहाँ जगह दूं?" कहते हैं-एक बार शिवाजी ने सवा लाख ब्राह्मणों एवं सन्तों को भोजन दिया । उसमें सन्त तुकाराम भी थे । तुकारामजी को उन्होंने दक्षिणा में चार गांव देने चाहे, परन्तु उन्होंने निःस्पृहतापूर्वक ठुकराते हुए कहा-"जिसके सामने तीन लोक की सम्पदा भी तुच्छ है, उसके लिए चार गाँव की क्या बिसात है ?" यह है-अपरिग्रहवृत्तिमूलक अकिंचनता का ज्वलन्त उदाहरण । ऐसी अकिंचनता जिसमें होती है, वह जाति, धर्म, सम्प्रदाय, ग्राम, नगर, प्रान्त, अनावश्यक विचार आदि पर ममत्वयुक्त परिग्रहवृत्ति से दूर रहता है। ऐसे अपरिग्रहवृत्ति अकिंचन साधक का अपना 'स्व' (आत्मा) अपने अधिकार में होता है, इसलिए वह देह, गेह, स्थान, शिष्य या अन्य साधनों के अधीन नहीं होता है । वह इन सबसे निर्लेप और निःसंग रहता है। विशुद्ध अकिंचनता बन्धुओ ! दीक्षाधारी साधु की अकिंचनता से शोभा है, वह किसी भी पदार्थ (सजीव-निर्जीव), क्षेत्र, काल और भाव के राग-द्वेष, मोह में नहीं पड़ता। जरा-सा भी राग-भाव किसी वस्तु पर उसके मन में आ जाए तो वह उसके लिए असह्य होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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