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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १० भिखारी के भीख माँगने और संयमी साधु के द्वारा भिक्षाचारी करने में जो अन्तर है, वही याचकवृत्ति और भिक्षावृत्ति में है । ३१८ अकिंचन भिक्षुक भावनाशील गृहस्थ के अन्तर् में श्रद्धा पैदा करके उसके हृदय में समर्पणवृत्ति जाग्रत करके लेता है, वह गृहस्थ के घर में माँगता नहीं कि मुझे यह दो, वह दो, ऐसा भोजन चाहिए, वैसा भोजन नहीं, गृहस्थ अपनी श्रद्धा से जो भी आहार उसके भिक्षा पात्र में डालेगा, वह समभाव से उसे ग्रहण करेगा । हाँ, उसे उस चीज की या उतनी मात्रा में आवश्यकता नहीं होगी तो वह इन्कार कर देगा, अथवा उसके कल्प, नियम एवं मर्यादा के अनुकूल निर्दोष सात्त्विक भिक्षा न होगी तो वह बिना लिये ही प्रसन्नता से लौट जायगा । मनोनुकूल भिक्षा न मिलने पर वह किसी पर शाप या आशीर्वाद नहीं बरसाएगा । एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए एक बार एक सुलतान जंगल में पहुँच गया । वहाँ उसे एक फकीर मिला, जो शान्त और निःस्पृह था । फकीर से बातचीत करके सुलतान बहुत प्रसन्न हुआ । जाते समय फकीर को अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए बहुत आग्रह किया । तब फकीर ने कहा - "मुझे किसी भेंट की आवश्यकता नहीं है । ये वृक्ष मुझे खाने के लिए फल देते हैं, ये झरने मीठा पानी पीने के लिए देते हैं, यह गुफा मुझे रहने के लिए जगह देती है, फिर मुझे आपकी भेंट लेने की क्या आवश्यकता है ?" फकीर की निःस्पृहता से सुलतान अत्यन्त प्रभावित होकर बोला - " आप मेरे राज्य में पधारिए और मुझे पवित्र कीजिए । " सुलतान के आग्रह से फकीर उसके नगर में पहुँचा । जहाँ थी, वहाँ फकीर को बिठाकर कहा - " आप जरा बैठिए । मैं कर लूं ।” सुलतान पास के ही कमरे में बन्दगी करते हुए याचना करने लगा - "हे खुदा ! तू मुझे इससे भी ज्यादा सामग्री दे, अधिकाधिक पुत्र दे, मेरा और शाही परिवार का शरीर नीरोग रख ।" इस तुच्छ याचना को सुनकर फकीर वहाँ से उठकर चल पड़ा । बादशाह ने जाते देखा तो उसके पीछे-पीछे दौड़ा और कहा - " सांई बाबा ! खड़े रहिए, भोजन किये बिना न जाइए ।" वैभव की सामग्री खुदा की बन्दगी फकीर ने जवाब दिया- "मुझे बिना याचना किये ही ईश्वर से आवश्यक सामग्री प्राप्त हो जाती है, और तू खुद याचक है, फिर तुझसे क्या याचना करूँ ।" फकीर की अकिंचनता एवं निःस्पृहता देख बादशाह चकित हो गया । अकिंचन में चौथा गुण होना चाहिए - 'निःस्पृहता' । निःस्पृहता का वास्तविक अर्थ है किसी पर कोई भी उपकार करके बदले में या साधुवेश या साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड आदि करने के बदले में कुछ पाने की आशा न रखना । स्पृहा या आशा बाँधने से साधक की आत्मा कमजोर होती है, उसका मनोबल गिर जाता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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