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________________ दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३१७ पास रख छोड़ी थी। परन्तु इस समय उस मुहर ने उनके मानस में उथल-पुथल मचा दी । वे सोचने लगे-खाने-पीने के सभी साधनों का त्याग कर दिया, धन-सम्पत्ति और कुटुम्ब-कबीले का त्याग किया, अपनी जीवन-नौका खुदाताला के हाथ में सौंप दी, अब मुझे इस स्वर्ण-मुद्रा से क्या काम है ? यह स्वर्ण-मुद्रा जब तक मेरे पास रहेगी, तब तक मन में खटका करेगी कि मुझे खुदाताला पर यकीन नहीं है । मेरे ये उद्गार बनावटी, दम्भी और पाखण्ड बढ़ाने वाले साबित होंगे कि खुदाताला मेरी सभी जरूरतें पूरी कर रहे हैं । इसीलिए तो अविश्वासी बनकर मैं इस स्वर्ण-मुद्रा का जतन कर रहा हूँ कि मुसीबत के समय में काम आएगी। खुदा की बन्दगी में एकाग्र बना हुआ मेरा चित्त बहुत-सी दफा इस स्वर्ण-मुद्रा की आसक्ति में चिपक जाता है, जिससे बार-बार टटोलना पड़ता है कि स्वर्ण-मुद्रा सही सलामत है या नहीं। वास्तव में यह स्वर्ण-मुद्रा ही मेरे और खुदा के बीच में अभेद्य दीवार बनकर खड़ी है । इसी क्षण इसे तोड़ डालूं, इसी में मेरा श्रेय है। मेरे और खुदा के बीच में अब मैं कोई भी आवरण रखना नहीं चाहता। बहन की स्मृति रूप में है, इससे क्या हुआ ? बहन की स्मृति एवं प्यार तो मेरे हृदय में है ही, उसे कोई छीन नहीं सकता, चुरा नहीं सकता । मैं महामूर्ख हूँ, जो बहन के प्यार को स्वर्ण-मुद्रा की चमक में मैं देखता हूँ। अभी और इसी समय मैं इस मूर्खता को मन से झाड़कर अकिंचनता के सच्चे आनन्द की अनुभूति करूँगा। बस, ये सुविचार आते ही महात्मा ने स्वर्णमुद्रा को बहुत दूर फेंक दिया। पास ही बहते हुए एक झरने में जब स्वर्णमुद्रा गिरी तो महात्मा के अन्तर् में ऐसा आनन्द आया, मानो तीनों लोक की अद्भुत निधि मिल गई हो । अब उनके मन की सभी आशंकाएं निर्मूल हो गई थीं। किसी दिन खैरात (दान) नहीं मिलेगी तो इस स्वर्ण-मुद्रा को बेचकर अपना जीवन निर्वाह कर लूंगा, ऐसा दुर्बल विचार मन से निकल गया था। उसके स्थान पर हृदय में दृढ़ आस्था की स्थापना हो गई थी। परमात्मा (खुदा) पर अविश्वास के कारणभूत साधन रखने वाले को खुदा की प्राप्ति कभी नहीं होती, यह दृढ़ आस्था उनके भक्त हृदय में भर गई थी। अकिंचन का तीसरा गुण हैं-अयाचकवृत्ति । याचकवृत्ति और भिक्षावृत्ति में अन्तर है । भिक्षा तो स्वाभिमानपूर्वक अदैन्य भाव से, किसी प्रकार का जाति, कुल आदि का परिचय दिये बिना या किसी की प्रशंसा या चापलूसी किये बिना की जाती है, वह भी लाभालाभ में निःस्पृह और सम रहकर; परन्तु याचकवृत्ति में दीनता, चापलूसी, प्रशंसा, परिचय-प्रदान आदि गहित बातों का समावेश है। भगवान महावीर ने अकिंचन भिक्षुओं के लिए कहा है ___ अदीणमणसो चरे 'भिक्ष अदीनमन होकर विचरण करे।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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