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आनन्द प्रवचन : भाग १०
(११) स्त्रीवेद, (१२) पुरुषवेद, (१३) नपुंसकवेद, और (१४) मिथ्यात्व । इन्हीं को आभ्यन्तरग्रन्थ कहते हैं, तथा बाह्य परिग्रह को बाह्यग्रन्थ । जो मूर्छा-इच्छा से रहित हैं, उनके लिए सारा जगत अपरिग्रह है। अतः बाह्य एवं आभ्यन्तर किसी प्रकार का परिग्रह अकिंचनता में बाधक है।।
किसी भी चीज से, यहाँ तक कि शरीर एवं शरीर से सम्बन्धित किसी भी जड़-चेतन पदार्थ से आत्मा का तादात्म्य बना लेना, ममत्व या 'मेरे' को जोड़ लेना अज्ञान है, परिग्रह है, जो अकिंचनता में मुख्यरूप से बाधक है। आत्मा के साथ वस्तु का मेरापन जोड़ने से दुःख
__ आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने और उसमें रमण करने वाला कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो परभाव को यह कहेगा कि 'यह मेरा है ?' इसलिए मेरा सम्प्रदाय, मेरा मन्दिर, मेरा उपाश्रय, मेरा वस्त्र, पात्र या कम्बल, मेरा गुरु, मेरा शिष्य आदि कहना या ऐसा 'मेरे' का दावा करना अथवा मन में मेरेपन का भाव रखना आकिंचन्य नहीं है। सिवाय आत्मा के (तुम्हारे), कुछ भी तुम्हारा नहीं है, उसी को लेकर तुम आए, उसी को लेकर परलोक जाओगे । बाकी सब खेल है। भाई-बन्धु, गुरु-शिष्य, शत्रु-मित्र आदि कोई भी तुम्हारा नहीं है । यह लोक भी, या घर मकान आदि भी सराय है। ज्ञानी पुरुष कहते हैं-जिसने मेरापन व्यवहार से, और मन से छोड़ दिया, उसके लिए अकिंचनता सहज हो जाती है।
___जब साधक अपनी आत्मा को किसी चीज से जोड़ते हैं, तभी मेरापन पैदा होता है । जब साधु संन्यासी कहते हैं-यह मेरा स्थान है तब कौन-सी घटना घटित होती है ? वे चले जायेंगे, लेकिन उनके लिए स्थान रोयेगा नहीं। स्थान गिर जायगा टूट-फूट जायगा तो वे (ममता के कारण) रोयेंगे। स्थान तो वैसा का वैसा बना रहेगा, लेकिन जिसके दिल में स्थान के लिए मेरापन है, वही दुःखी होगा। भगवान महावीर कहते हैं
चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामवि।।
अन्नं वाऽणजागाइं, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥ 'जो मनुष्य सजीव (मनुष्य, पशु-पक्षी आदि) एवं निर्जीव (धन-धान्य, सोना. चाँदी आदि) किसी भी वस्तु का जरा-सा भी स्वयं परिग्रह (ममत्व युक्त) रखता है, या दूसरों को रखने की राय देता है, वह कभी दुःख से छूट नहीं सकता। जहाँ-जहाँ ममत्व आत्मा के साथ में जुड़ा हुआ है, वहाँ दुःख के सिवाय और कोई लाभ नहीं। अकिंचन साधु स्थान को सराय समझता है
मैंने कहीं पढ़ा था कि एक सूफी फकीर कुछ विद्यार्थियों को लेकर कहीं जा रहा था, रास्ते में एक आदमी मिला, जो गाय को रस्सी से बांधकर खींचे लिए जा
-ज्ञानसार
१. 'मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ।' २. सूत्रकृतांग (श्रु० १, अ० १, उ० १, गा० २)
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