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________________ दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३०६ रहा था। उसने विद्यार्थियों से उस आदमी को घेर लेने को कहा। गायवाला आदमी यह सुनकर जरा चौंका, लेकिन यह जानने को अवाक् खड़ा रह गया कि क्या मामला हैं ? सूफी फकीर ने शिष्यों से पूछा-'बताओ; इन दोनों (गाय और आदमी) में कौन किसका गुलाम है ? यह आदमी गाय का गुलाम है या गाय इस आदमी की ?" पूर्व संस्कारवश स्वभावतः शिष्यों ने कहा-"गाय इस आदमी भी गुलाम है, क्योंकि गाय की रस्सी इसने हाथ में थाम रखी है । यह उसे चाहे जहाँ ले जा सकता है।" सूफी फकीर ने कहा-"तुमने केवल ऊपर-ऊपर से देखा है। ऐसा मत समझो कि रस्सी बीच में से काट दें तो गाय इस आदमी के पीछे चली जाएगी या आदमी इस गाय के पीछे भागेगा ? गाय हगिज पीछे आने वाली नहीं, यह तो रस्सी पकड़े हुए इस आदमी के साथ भी मुश्किल से जाएगी। यह आदमी ही गाय के पीछे भागता फिरेगा । गाय को इस आदमी से कोई लेना-देना नहीं। इस गाय ने कोई तादात्म्य इस आदमी के साथ नहीं बांधा है, तादाम्य तो स्वयं इस आदमी ने ही गाय के साथ बांधा है । अतः गुलाम यह आदमी है, गाय नहीं।" इस प्रकार जिस-जिस वस्तु के साथ आत्मा का तादात्म्य जोड़कर आदमी उसे मेरी कहता है, वहीं वह उसका गुलाम हो गया । वह वस्तु उस तादात्म्य सम्बन्ध जोड़ने वाले व्यक्ति को 'मेरा मालिक' नहीं कहती। वस्तु के प्रति ममत्व रखकर अपनी आत्मा से उसका तादात्म्य जोड़ने वाला ही कहता है-"यह वस्तु मेरी है, मैं इसका मालिक हूँ।" और इस प्रकार उस वस्तु को पाने, टूट-फूट जाने, खो जाने या नष्ट हो जाने पर व्यक्ति उसके लिए रोता है, आर्तध्यान करता है। बल्ख के सम्राट इब्राहीम के महल के द्वार पर एक फकीर आया और पहरेदार से कहने लगा--"मुझे इस सराय में ठहरना है।" चौकीदार ने कहा-"यह सराय नहीं है, सम्राट का महल है।" पर वह बड़े जोर-जोर से बोलकर चौकीदार से लड़ रहा था। पहरेदार ने कहा--"हजार दफे कह दिया कि यह सराय नहीं है। सराय गांव में है। यह राजा का महल है, यहाँ राजा खुद रहता है। तुम किस होश में बात कर रहे हो ? यह कोई ठहरने की जगह नहीं।" फकीर ने जोर से कहा- "बुलाओ राजा को मैं उसे देखना चाहता हूँ।" फकीर की आवाज से ऐसा नहीं लगता था कि वह कोई सनकी या पागल है । इब्राहीम ने सुना तो सोचा कि फकीर की आवाज में कुछ जादू सा मालूम होता है, उसके कथन में कुछ रहस्य जरूर है। उसने फकीर को भीतर बुलाया। फकीर ने सम्राट से पूछा-'राजा कौन है ? तुम हो ?" सिंहासनासीन राजा ने कहा-"मैं राजा हूँ। यह मेरा निवास है, तुम व्यर्थ ही पहरेदार से झंझट कर रहे हो, यह सराय नहीं है।" . फकीर ने कहा- "मैं पहले भी आया था, तब एक दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था और तुम्हारी तरह ही कहता था।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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