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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३०७
इस प्रकार अकिंचन साधुओं की ममत्व की करुण कहानी है । यह ममतामूर्च्छा यहाँ तक ही सीमित नहीं रहती, सुरसा की तरह आगे से आगे बढ़ती जाती है, कभी बहुत ही सूक्ष्म हो जाती है, उसका रहस्य भ्रमवश बड़े-बड़े साधुओं को भी मालूम नहीं होता । पद का ममत्व, पदवी के लिए लड़ाई, एक दूसरे के साथ राजनीतिज्ञों की-सी प्रतिस्पर्धा और टक्कर ! प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की आसक्ति तो इतनी जबर्दस्त है कि वह जीवनपर्यन्त तथाकथित अकिंचनों के दिल-दिमाग से नहीं निकलती । यहाँ तक कि अगर दूसरे सम्प्रदाय के किसी साधु को अधिक प्रतिष्ठा मिल जाती है, या उसकी अधिक प्रसिद्धि होती है, तो उससे ईर्ष्या करके उसकी प्रतिष्ठा को गिराने और प्रसिद्धि को चौपट करने की कोशिश की जाती है, तथाकथित अकिंचनों के द्वारा । कहा भी है
कंचन तजबो सहज है, सहज त्रिया को नेह ।
मान, बड़ाई, इर्ष्या, दुर्लभ तजिबो एह ॥
निष्कर्ष यह है कि अकिंचन कहलाने वाला साधुवर्ग प्रायः सर्वत्र अहंकार की पताका लिए खड़ा रहता है । जो व्यक्ति अत्मार्थी है, आत्मतृप्त है, आत्मा की पूजा करना चाहता है, वह प्रतिष्ठा को लात मारकर भगा देता है । वह तो साफ कहता है
"प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा ।"
'प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा के समान त्याज्य है । '
स्वामी रामकृष्ण परमहंस को यह पसन्द न था कि लोगों में उनकी प्रसिद्धि हो । वे प्रत्येक व्यक्ति के सामने अपनी चामत्कारिक अनुभूति की बात नहीं कहते थे । बाबू केशवचन्द्र सेन स्वामीजी के सम्पर्क में आने के बाद उनके सद्गुणों पर बहुत मुग्ध हो गये थे । एक बार उन्होंने सद्भावनावश सामाजिक पत्रों में स्वामीजी की प्रशंसा में एक लेख प्रकाशित करा दिया। जब स्वामीजी ने यह समाचार सुने तो वे उन पर बहुत नाराज हुए । उन्होंने केशवचन्द्र बाबू को कितने ही अर्से तक अपने पास आने के लिए मना कर दिया । एक दिन आधी रात के समय स्वामीजी उठे और थू-थू करते हुए कहने लगे - " लोग मुझे सम्मान देते हैं, माँ ! थू-थू माँ ! " यानी लोक प्रतिष्ठा पर आप थूकते थे । सम्मान, यश एवं प्रसिद्धि से आप विरक्त थे । निष्कर्ष यह है कि दीक्षाधारी साधु को इन सब बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों से बचना चाहिए ।
अकिंचनता में बाधक तत्त्व
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बाह्य परिग्रह के भेद शास्त्रकारों ने बताये हैं - (१) क्षेत्र, (२) वास्तु, (३) हिरण्य, (४) सुवर्ण, (५) धन, (६) धान्य, (७) द्विपद, (८) चतुष्पद और (ह) कुप्य ।
आभ्यन्तर परिग्रह के १४ भेद हैं - ( १ ) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) क्रोध, (८) मान, ( 8 ) माया, (१०) लोभ,
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