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________________ ३०६ आनन्द प्रवचन : भाग १० यह है-दीक्षाधारी परिग्रह त्यागी साधु का पुनः परिग्रह में लिपट जाने का ज्वलन्त उदाहरण । अकिंचन बनकर भी पुनः परिग्रह के कीचड़ में आज दीक्षाधारी साधु घर-बार, धन सम्पत्ति आदि सब कुछ छोड़कर अकिंचन बन जाता है, लेकिन इन सब परिग्रहों के बदले दूसरे परिग्रह उसके मन में जड़ जमा लेते हैं । दीक्षाधारी अपना एक घर छोड़ता है, यहाँ जगह-जगह घर मिलते हैं, जहाँ उसका ममत्व चिपका कि अनेक घरों का परिग्रह हो जाता है। वह छोड़ता है-एक परिवार को, यहाँ भक्त-भक्ताओं एवं शिष्य-शिष्याओं के परिवार के साथ अगर वह ममत्व बाँध लेता है तो यह सम्प्रदाय नामक नया परिवार उसके लिए परिग्रह बन जाता है। उधर एक गांव छोड़ता है, लेकिन यहाँ विचरण के क्षेत्रों पर तेरे-मेरे की छाप लग जाती है, विचरणक्षेत्रों के बारे में होने वाले झगड़े तथा तीर्थक्षेत्रों में अलग-अलग मन्दिरों के झगड़े क्षेत्रासक्ति ही सूचित करते हैं । इसी प्रकार मन्दिर, मस्जिद, धर्मस्थानक, चर्च, उपाश्रय, गुरुद्वारा, मठ, विहार, रामद्वार, आदि पर भी जब मेरापन चिपक जाता है, तब साधु अकिंचन, निर्ग्रन्थ या अपरिग्रही नहीं रह जाता। होता यह है कि मन्दिर आदि के पीछे 'मेरा' चिपक जाने पर झंझट पैदा हो जाती है। मुसलमान को हिन्दू का मन्दिर गिर जाय तो प्रसन्नता होती है, और हिन्दू को मुसलमान की मस्जिद गिर जाने पर । परमात्मा से किसी को कुछ लेना-देना नहीं है । परमात्मा भी सबके अपने-अपने हैं। अगर हिन्दू के भगवान् का मन्दिर गिर रहा हो तो मुसलमान बचाने नहीं आयेगा, यही बात मुस्लिम के मस्जिद की है । और तो और, एक ही भगवान में बँटवारा हो जाता है, साधुओं की इस प्रकार की आसक्ति के कारण। यह तो अमुक का भगवान् है, मेरा नहीं। इस प्रकार के जाति, धर्मसम्प्रदाय, मन्दिर, धर्मस्थान, उपाश्रय आदि पर अपनी-अपनी ममता चिपकाकर जो साधु बैठ जाते हैं, वे फिर किसी दूसरी जाति, धर्म-सम्प्रदाय, आदि के व्यक्ति को कतई नहीं घुसने देते । यह आसक्ति बहुत गहरी होती है, साधु के जीवन में । अगर आप जंगलों, गुफाओं और तीर्थों में जाकर देखेंगे तो वहाँ आपको पता चलेगा कि जो संसार छोड़कर बैठे हैं, उनकी अलग-अलग गुफाएँ, अलग-अलग स्थान, पृथक्-पृथक् तीर्थ हैं, अगर वहाँ कोई और साधु आ जाए तो झगड़ा मच जायगा, क्योंकि गुफा पर या अमुक स्थान पर अमुक स्वामी का ही कब्जा है, अमुक बाबा ही इसका मालिक है । अमुक आचार्य का ही यह उपाश्रय, या ज्ञानशाला, धर्मस्थानक, या भवन है। इसमें दूसरे आचार्य के शिष्य प्रवेश नहीं कर सकेंगे, अन्यथा झगड़ा हो जायगा, अपने भक्तों द्वारा निकलवा दिया जायगा । चलती सड़क है, किसी एक की नहीं है; पेड़ है, किसी एक का नहीं है, सार्वजनिक है, यदि वहाँ कोई बाबा आकर जम गया है तो वह स्थान उसका हो गया, फिर वहाँ से उसे हटाकर दूसरे बाबा का बैठना असम्भव सा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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