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दुष्टाधिप होते दण्डपरायण – १
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बार यह सोचता है कि एक श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए यह उचित है या नहीं, किन्तु कदम बढ़ाने के बाद पीछे नहीं हटता, वस्तुतः वही बड़प्पन का अधिकारी है ।
सन् १९४७ में देश-विभाजन के समय ऐसा लगता था, मानो लोगों के हृदय भी विभाजित हो गये हैं । साम्प्रदायिक दंगे अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये थे । हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के खून के प्यासे बने हुए थे । मनुष्य की जान का कोई मूल्य न रह गया । उस समय दिल्ली दंगों का केन्द्र बनी हुई थी । हर गली और सड़क पर लाशों के ढेर लग गये थे । मकानों में आग लगाई जा रही थी। दुकानें लूटी जा रही थीं । कुछ उपद्रवी एक जूतों की दुकान में घुस गये। यह देखते ही दुकानदार तो जान बचाकर भागा । गुण्डे जूते लेकर इधर-उधर भागने लगे । उसी समय एक दबंग, निहत्था आदमी अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए दनदनाता हुआ दुकान में घुस आया । उसे देखते ही लोग जहाँ के तहाँ खड़े रह गये । फिर वे जूतों के जोड़ों को न उठा सके । फिर भी एक दुष्ट आदमी जूते लेकर भागने लगा; पर वह महान् व्यक्ति उसे अपने सामने दुकान कैसे लूटने दे सकता था । उसने पीछे दौड़कर जो ललकार लगाई कि वह जूते वहीं छोड़कर जान बचाकर भाग गया । फिर तो उस सफेदपोश महान् व्यक्ति ने बिखरे हुए सारे जूते उठाकर दूकान में रख दिये । यह दबंग व्यक्तित्व का धनी था भारत का प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू, जो साम्प्रदायिक दंगों की लपटों के बीच भी अकेला और निहत्था निर्भय होकर घूमता था ।
वास्तव में बड़े आदमी 'नेकी कर कुँए में डाल' की के साथ कुछ उपकार किया है तो उसकी चर्चा करना तो दूर नहीं करते, पर क्षुद्र आदमी अपने राई से एहसान को पहाड़ बनाकर उस पर बारबार जताते रहते हैं, जिसके साथ उन्होंने कुछ उपकार किया है । बड़े आदमी का यह प्रमुख चिह्न है कि वह घटनाओं से व्यक्तियों से या किसी से भी उद्विग्न नहीं होता । धीरज उसके हाथ से कभी छूटता नहीं, वह शोक-सन्ताप की घड़ियों में भी चट्टान की तरह अडिग रहता है ।
बड़प्पन बाहर नहीं, भीतर रहता है। बाहरी ठाठ-बाट से नहीं, दिल-दिमाग को चौड़ा - उदार और दूरदर्शी रखकर ही उसे प्राप्त किया जाता है | बड़े आदमी आज की नहीं, आने वाले सुदूर भविष्य की सोचते हैं | अपना कल्याण किस बात में है ? जीवन की सार्थकता किस नीति को अपनाने है ? आज उपलब्ध हुए अमूल्य अवसर का सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या है ? वे यही सोचते रहते हैं और इन्हीं प्रेरणाओं के प्रकाश में अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। किसी का शोषण करके या किसी पर अन्याय, अत्याचार वे नहीं करते, बल्कि किसी को सहायता पहुँचाने, या कुछ भी दे देने की भावना रखते हैं । वे सादगी अपनाते हैं, नम्र रहते हैं, अपने हाथ से काम करने में लज्जा महसूस नहीं करते, मधुर बोलते हैं और प्रत्येक कार्य में शिष्टाचार
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नीति अपनाते हैं । किसी रहा, उसका स्मरण भी
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