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________________ ८ आनन्द प्रवचन : भाग १० तो उन्होंने कहा- "पिताजी ! वैसे तो हम आपको हमारे बीच में से उठाना नहीं चाहते, तथापि दूसरों की सेवा के लिए आप शरीर अर्पण कर रहे हैं, इसलिए हम आपको रोकने में भी असमर्थ हैं।" मन्त्री ने ब्रिटिश पालियामेंट को लिखा था कि "इस प्रजा का अपराध नहीं, अपराध मुख्यतया मेरा है, इसलिए यह दण्ड मुझे मिलना चाहिए, निर्दोष प्रजा को नहीं।" ___खबर पहुँची, वहाँ से वापस आर्डर आया कि जब मन्त्री अपराधी है तो उसे इस अपराध के बदले फाँसी की सजा दी जाये । प्रजा ने जब यह सुना तो उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली । जब मन्त्री फाँसी के तख्ते पर चढ़ने जा रहे थे, तब हजारों आदमी उन्हें विदा देने चले । मन्त्री के चेहरे पर प्रसन्नता थी। उनकी दयालुता, ईमानदारी, न्यायप्रियता आदि में किसी को सन्देह न था। नियत समय पर मन्त्री फाँसी के तख्ते के पास आये, जनता की भीड़ उनके चारों ओर खड़ी प्रभु से प्रार्थना कर रही थी। सबकी शुभ-कामनाएँ बरस रही थीं। मन्त्री सबसे क्षमा याचना करके अपने इष्टदेव स्मरण करके फाँसी के तख्ते पर चढ़े। किन्तु एक-दो सीढ़ियाँ चढ़े होंगे कि उनका हार्ट फेल हो गया। वे वही गिर पड़े। फाँसी का तख्ता अभी दूर था। प्रजा एक ओर 'धन्य-धन्य' कह रही थी, दूसरी ओर आँखों से शोकाश्रु डाल रही थी। एक परोपकारी मन्त्री (नगराधिपसम) ने सारे नगर की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया। यह है अधिप का बड़ा कार्य, दूसरों के कष्टनिवारण के लिए अपना उत्सर्ग ! इस उदाहरण से आप दुष्टाधिप और शिष्टाधिप का अन्तर भी समझ गये होंगे । वास्तव में बड़ा नाम या पद नहीं होता, बड़ा होता है काम। बड़प्पन व्यक्तित्व एवं कार्यों से मिलता है, जो जितना उदार होता है, वह उतना ही बड़ा माना जाता है, चाहे वह गरीब घर में जन्मा हो । धन का अभाव व्यक्ति की महत्ता को कुण्ठित नहीं कर सकता। जिसकी भावना, आकांक्षा और विचारधारा जितनी ऊँची होगी, आदर्शवाद के प्रति जितनी अधिक आस्था होगी, उतनी ही उसकी महत्ता होगी। शिष्ट अधिप उच्च स्तर की बात सोचते और उच्च कार्य करते हैं । जिससे मानवता कलंकित होती हो, व्यक्तित्व का मूल्य घटता हो, ऐसे कार्य वे कितना ही कष्ट आ पड़ने या दूसरों द्वारा परेशान किये जाने पर भी करने को तैयार नहीं होते । यों तो हर वाचाल, चालाक और अधिकार-लोलुप व्यक्ति आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें कर सकता है, लेकिन परीक्षा की घड़ी में पता चलता है कि कौन उदार, स्वार्थी, कष्टसहिष्णु और बड़ा है तथा कोन अनुदार, संकट से भागने वाला और छोटा है। दुनिया किसी को बड़ा आदमी तभी मानती है, जब वह औसत दर्जे के आदमी से अधिक ऊँचा सिद्ध होता है । जो प्रलोभनों की ओर खिंचता रहता है, प्राण चले जाने के भय से काँपता रहता है, वह तो संसार की क्षुद्रता द्वारा नचाई जाने वाली कठपुतली के समान है। ऐसे लोग बड़प्पन का दावा नहीं कर सकते । जो किसी काम में हाथ डालने से पहले या किसी पथ पर कदम रखने से पहले सौ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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