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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३०३
साधना के लिए जो भी ये उपकरण ( साधन) रखता है, उसे जगत्त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने परिग्रहरूप नहीं कहा है। लेकिन इन समस्त उपकरणों में ममता - मूर्च्छा या आसक्ति रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है ।'
इस सूत्र में बताए हुए ऊपर के अंश को ही पकड़कर जब साधु प्रवृत्ति करने लगता है और आवश्यकता एवं संयमरक्षा का हेतु न होने पर भी साधन-सामग्री के संग्रह को परिग्रह न समझकर संग्रह करता जाता है, सूक्ष्मरूप से उसकी ममता बढ़ती जाती है, उसकी मूर्च्छा दिनोंदिन प्रबल होती जाती है, फिर वह 'मूर्च्छा परिग्रह है' इस सूत्र को भूल जाता है । वस्तुओं पर ममता मूर्च्छा होते हुए भी तथा अन्तर्मन में इसे समझते हुए भी अपनी पकड़ी हुई मिथ्या बात को सिद्ध करने के लिए वह यही कहता रहता है— 'इन वस्तुओं पर मेरी ममता - मूर्च्छा नहीं है, मेरा कोई स्वामित्व इन पर नहीं है, ये वस्तुएँ मेरी नहीं हैं, मैं तो केवल इनका संरक्षक हूँ ।' इस प्रकार मिथ्या आग्रहवश एक दिन जो अपरिग्रही, निर्ममत्व, निःस्पृह, अकिंचन भिक्षाजीवी साधु था, वह धीरे-धीरे परिग्रह और ममत्व के दलदल में फँस जाता है । जबकि दशवेकालिक सूत्र में परिग्रह त्यागी साधकों को बराबर इस बात की चेतावनी दी गई है
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सम्वत्थवहिणा
बुद्धा संरक्खण-परिग्गहे ।
अवि अपणो विदेहम्मि, नाऽऽयरंति ममाइयं ॥
तत्त्वज्ञ साधु उपाधि (वस्त्र, पात्र,
आदि धर्मोपकरणों) के स्वीकार में अथवा उसके संरक्षण - सार-संभाल में सर्वत्र किसी प्रकार की ममता या आसक्ति नहीं रखते । जो देह तक में ममत्त्व नहीं रखते, क्या वे तुच्छ साधन-सामग्री में कभी ममत्व रख सकते हैं ? इतनी चेतावनी के बावजूद भी अपरिग्रही साधक साधन-सामग्री के मोहममत्व में फंस जाता है और ऐसा फँसता है कि फिर उससे निकलना ही दुष्कर हो जाता है ।
तथागत बुद्ध के युग की एक सुन्दर आख्यायिका इस विषय पर प्रकाश डालती है ।
तथागत बुद्ध के दो शिष्यों ने धर्मप्रचारार्थ एक साथ प्रस्थान किया। दोनों शास्त्रज्ञ एवं तेजस्वी थे । आगे चलकर जहाँ दो रास्ते मुड़ते थे, वहाँ दोनों ने एकदूसरे से कहा- 'हम यहाँ से पृथक्-पृथक् रास्ते से भ्रमण करेंगे, क्योकि ऐसा करके हम अधिक क्षेत्रों को संभाल सकेंगे ।' दोनों अलग-अलग मार्गों से चलकर अपने-अपने गन्तव्य स्थान में पहुँचते हैं और कुछ दिन धर्मोपदेश देते हैं, फिर आगे चल पड़ते हैं । दोनों को वर्षों पर वर्ष बीतते गए, मगर एक दूसरे के समाचार नहीं मिले । बारह वर्ष व्यतीत हो गये, लेकिन दोनों एक दूसरे से मिल भी न सके ।
दोनों में से जो छोटा बौद्धभिक्षु था, वह ग्राम-नगर विचरण करता-करता अपनी जन्मभूमि के गांव में पहुंच गया । वहाँ लोगों को उपदेश देने लगा, वहाँ बहुत-से
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