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________________ ३०४ आनन्द प्रवचन : भाग १० अनुयायी भी बन गये । जब पहले-पहल वह इस गाँव में आया था, तब उसके पास कुछ ग्रन्थ, मिट्टी के पात्र और काषायवस्त्र इतने ही उपकरण थे; लेकिन धीरे-धीरे ग्रामीणजनों का परिचय बढ़ता गया, उनको भी इस भिक्षु के प्रति ममत्व हो गया । इसलिए जहाँ उसे एक वस्त्र की जरूरत होती, वहाँ वह ८-१० वस्त्र, अनेक कम्बल, पात्र, तथा अन्य नये-नये साधन संग्रह करने लगा । वस्त्र भी एक से एक बढ़कर बहुमूल्य और सुन्दर तथा अन्य सामग्री भी बढ़िया इकट्ठी की जाने लगी । पहले वह घरों से स्वयं भिक्षा माँगकर आहारादि लाता था, पर बाद में भिक्षा लाना बन्द कर दिया । उसके स्थान पर ही भक्त लोग उसके लिए सुबह दूध, नाश्ता, दोपहर को स्वादिष्ट भोजन लाने लगे । दो-तीन भक्त तो हर समय भिक्षु की सेवा में उपस्थित रहते थे । सुख-सुविधाएँ तो साधक के लिए फिसलन हैं । अप्रमादी और अविवेकी साधक का फिसलन वाली भूमि पर चलने से पतन होना अवश्यम्भावी है । भिक्षु भी धीरे-धीरे सुकुमार और सुखशील बनता गया, अपने गाँव में एक ही स्थान पर ही मजे से आराम करने लगा । भ्रमण बन्द कर दिया । इन बारह वर्षों में उसने सुन्दर - सुन्दर वस्त्र आभूषण, पात्र, सुखशय्या, अनेक ग्रन्थ वगैरह एकत्रित कर लिये । आरामतलबी में कोई कसर न रखी । धीरे-धीरे वह भोगी और विलासी बनता गया । उसे यह स्मरण भी न रहा कि मेरे बड़े गुरुभाई कहाँ हैं ? बारह वर्ष बाद एक दिन उसे सहसा याद आया कि मेरे एक न मालूम वे आजकल कहाँ हैं ? उनकी तलाश करनी चाहिए। विचारविमर्श करके वह भिक्षु गुरुभाई की तलाश में वहाँ से निकला । घूमतेघूमते एक गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे उन्हें आसन पर बैठे देखे । भिक्षु उनके निकट आया और देखा तो आश्चर्य में डूब गया कि इसके पास न तो कोई मठ है, न सुन्दर पलंग और न ही बढ़िया वस्त्र । यह तो अभी तक वैसा का वैसा ही रहा । यह देखकर मन ही मन अपने ठाठ-बाट का विचार करता हुआ भिक्षु मुस्कराया। फिर बड़े गुरुभ्राता से पूछा - "भंते ! आप मठ या विहार में क्यों नहीं रहते ? और आपके पास तो कपड़े तथा अन्य साधन भी पूरे नहीं दीखते ।" बड़े भिक्षु ने कहा - " भाई ! एक ही स्थान में पड़े रहने से सुखशीलता, प्रमाद, सुविधावाद एवं विलासता आ जाती है ।" बड़े गुरुभाई थे, गाँव के भक्तों से छोटा भिक्षु कहने लगा- " आप चाहे जो कहें, विहार विहार ही है, उसमें रहने से समय पर लोगों को नियमित रूप से उपदेश भी दिया जा सकता है । मैं तो ऐस ही करता हूँ । एक विहार में रहता हूँ । वहीं लोगों को उपदेश देकर उनका मनोरंजन करता हूँ । मुझे भिक्षा के लिए घर-घर घूमने की जरूरत नहीं पड़ती। विहार में ही भक्त लोग दूध, नाश्ता, आहार आदि दे जाते हैं ।" बड़ा भिक्षु - "यह तो भिक्षुधर्म के विरुद्ध है । भिक्षु का अर्थ ही है मिक्षा लाकर खाना और उपदेश देकर जनता की आत्मा का कल्याण करना ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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