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३०२ आनन्द प्रवचन : भाग १०
दीक्षित साधु के समक्ष धन का ढेर लगा होगा, सुन्दर-सुन्दर वस्तुएँ पड़ी होंगी, अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ सामने धरे होंगे, तो भी वह उनको लेने के लिए मन में भी विचार नहीं करेगा । जैसे कमल कीचड़ में पैदा होते हुए भी उससे अलिप्त रहता है वैसे ही सच्चा दीक्षाधारी साधु पंक-सम संसार और समाज में रहते हुए भी उनकी प्रवृत्तियों से अलिप्त रहेगा । वह अपने मन में संसार नहीं बसाएगा । संसार का मतलब है
'कामानां हृदये वासः संसारः परिकीर्तितः ।' 'विविध कामनाओं का हृदय में निवास करना ही संसार है ।'
निष्कर्ष यह है कि दीक्षाधारी साधु अपरिग्रही, निर्ममत्व, अनासक्त, निर्लेप, निर्ग्रन्थ एवं अकिंचन होना चाहिए। सांसारिक बातों का किसी प्रकार रंग या लेप उस पर नहीं होना चाहिए । त्यागी बनकर जो उस त्याग की मन-वचन-काया से अप्रमत्त एवं जागरूक होकर साधना करता है, वही सच्चा दीक्षाधारी है; वही स्व-परकल्याणसाधक सच्चा साधु है । जो स्वयं संसार की मोहमाया में पड़ जाता है, वह साधु - जीवन के उद्देश्य के अनुसार कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता और न ही संसार की मोहमाया में पड़े हुए तथा कर्मबन्धनों में लिपटे हुए लोगों को सच्चा मार्गदर्शन दे सकता है । साधुदीक्षा ग्रहण करके पुनः सांसारिक प्रवृत्तियों में पड़ने वाला व्यक्ति 'इतोभ्रष्टस्ततो भ्रष्टः' हो जाता है ।
दीक्षा लेने के बाद त्यागी साधु पुनः परिग्रह के मोह में क्यों ?
कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि दीक्षा लेने के बाद त्यागी बना हुआ साधु पुनः नये-नये परिग्रह, संग्रह या वस्तु के मोह में क्यों पड़ जाता है । क्या कारण है कि अकिंचन और अपरिग्रही साधु अपनी प्रतिज्ञा से हट जाता है ? यों तो दीक्षा लेते समय साधु समस्त प्रकार के परिग्रह का मन-वचन-काया से त्याग करता है, भले ही परिगृहीत वस्तु अल्प हो या अधिक, सूक्ष्म हो या स्थूल, सजीव हो या निर्जीव; किन्तु उस त्याग का स्थायी संस्कार तब तक जीवन में नहीं आ पाता, जब तक कि उस त्याग का अप्रमत्ततापूर्वक गहरा एवं दीर्घकालिक अभ्यास न हो । कई बार परिग्रह की परिभाषा के भ्रम में दीक्षित साधु वस्तुओं का संग्रह करता जाता है । मान लीजिए, एक साधु है, वह दशवैकालिक सूत्र के इस पाठ को पढ़ता है
जं पिवत्थं वा पायं वा कंबलं पायपुच्छणं । तंपि संजमलज्जट्ठा धारेंति परिहरति य ॥ न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ॥ 'जिनका ध्येय कर्मक्षय करके मुक्ति पाना है, ऐसे परिग्रहत्यागी साधु जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन आदि उपकरण रखते हैं, वे भी केवल संयमरक्षा एवं लज्जानिवारण के लिए रखते हैं, धारण करते हैं या पहनते हैं । अपरिग्रही साधु संयम की
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