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दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३०१ आसक्ति और मोह न हो तथा इन दोषों के उत्पन्न होने के साथ ही लड़ाई-झगड़े, कलह, क्लेश, अशान्ति, बेचैनी, चिन्ता आदि पैदा न हों। यह निश्चित है कि जब दीक्षाधारी साधु परिग्रह के प्रपंचों में पड़ जाता है, तब उसकी मानसिक शान्ति, निश्चिन्तता, सन्तोषवृत्ति एवं निर्ममत्वभावना समाप्त हो जाती है, और वह स्वपरकल्याण साधना नहीं कर सकता। भले ही उसका वेश साधु का होगा, परन्तु उसकी वृत्ति में साधुता, निर्लोभता, निर्ममत्व, शान्ति और निश्चिन्तता पलायित हो जाएंगे।
साधु जीवन अंगीकार करने का जो उद्देश्य था-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना द्वारा कार्यक्षय करके मोक्ष प्राप्त करने का, वह इस प्रकार की परिग्रहवृत्तिममत्वग्रन्थि आ जाने पर लुप्त हो जाता है । अतः अगर संक्षेप में सच्चा दीक्षाधारी कौन है ? यह बताना हो तो हम कह सकते हैं-जो निर्ग्रन्थ है, अपरिग्रही है, वही वास्तव में सच्चा दीक्षाधारी साधु है, और उसकी शोभा अकिंचन बने रहने में है। जिसके जीवन में बाह्य और आभ्यन्तर किसी प्रकार के परिग्रह की ग्रन्थि न हो, वही सच्चा गुरु है, सच्चा दीक्षित मुनि या श्रमण है।
केवल घर-बार छोड़ने या धन-सम्पत्ति का त्याग कर देने मात्र से कोई सच्चा साधु नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसके अन्तर् से त्यागवृत्ति न हो, उन वस्तुओं-सचित्त या अचित्त पदार्थों के प्रति उसको मानवता, आसक्ति, मोह या लालसा न छूटे, उसके मन से इच्छाओं, कामनाओं का त्याग न हो। यहाँ तक कि अपने धर्मस्थान, शरीर, शिष्य तथा विचरण-क्षेत्र, शास्त्र, पुस्तक आदि पर भी उसके मन में ममत्व, स्वामित्वभाव या लगाव न हो। दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा है
लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्ने अन्नवरामपि ।
जे सिया सनिहिकामे, गिही पम्बइए न से ॥ 'निर्ग्रन्थ-मर्यादा का भंग करके जिस किसी वस्तु का संग्रह करने की वृत्ति को मैं आन्तरिक लोभ की झलक मानता हूँ। अतः जो संग्रह करने की वृत्ति रखते हैं, वे प्रवजित-दीक्षित नहीं, अपितु सांसारिक प्रवृत्तियों में रचे-पचे गृहस्थ हैं।'
दीक्षा ग्रहण करने से पहले साधु ने जिन मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयभोगों को, मनोहर, प्रिय वस्त्र, अलंकार, स्त्रीजन, शय्या आदि को स्वेच्छा से छोड़ा है, उन्हीं मनोज्ञ, प्रिय एवं कमनीय भोग्य वस्तुओं की मन में लालसा रखना, उनकी प्राप्ति हो सकती हो या न हो सकती हो, फिर भी उनके लिए मन में कामनाएं संजोना, त्यागी का लक्षण नहीं है, वह अत्यागी है।'
१ वत्यगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छंदा जे न मुंजंति, न से चाइत्ति बुच्चइ ॥
-दशवका० अ० २
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