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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग १० वेश-भूषा का भी मन पर प्रभाव वेश-भूषा का भी मन पर प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति सतोगुणी विचारों का होगा, उसकी वेश-भूषा सादी और पवित्र होती है। उसकी वेश-भूषा में मन-वचन-कर्म से शुचिता के दर्शन होते हैं। ब्रह्मचर्यसाधक सात्त्विक वेशभूषा से ही मन-वचनकाय से पवित्र रह सकता है। भारत में जितने ऋषि, मुनि, सन्त, संन्यासी, तीर्थंकर, अवतार, भक्त या ब्रह्मचारी हुए हैं, सबने सादगी अपनाकर ही अपना जीवन उन्नत किया है । परमात्मभक्ति या मोक्षसाधना में लगाया है । परमभक्ता मीराबाई को कौन नहीं जानता ? वह विवाह करके भोग-विलास में नहीं फंसी, राजघराने की कुलवधू होते हुए भी भोग-विलास और वैषयिक सुख-भोग के सभी साधन होते हुए भी वह इन सबको ठुकराकर सीधे-सादे वेष में रही । रहन-सहन और खान-पान में भी उसने सादगी अपनाई । उसके ब्रह्मचर्य का तेज उसके सीधी-सादी वेशभूषा में झलकता था। कोई उसके सामने कामविकार की दृष्टि से आँख उठाकर भी नहीं देख सकता था, इतना अद्भुत तेज था, उस ब्रह्मचारिणी भक्ता के चेहरे पर ! उसने अपने आपको शरीर-पूजा में नहीं लगाया, किन्तु आत्मपूजा और भगवत्पूजा में लगा दिया। अपना तन, मन, इन्द्रियाँ आदि सर्वस्व मीरा ने प्रभुभक्ति में लगा दिया। तभी तो उसका जीवन उच्च भूमिका पर पहुँच सका। शील ही परम आभूषण है वास्तव में देखा जाये तो ब्रह्मचारी को और किसी भी आभूषण की जरूरत नहीं है, जिस आभूषण की जरूरत है, आत्मा को शृगारित-सुसज्जित करने के लिए जिस गहने की जरूरत है, वह उसके पास है। क्या आप बता सकते हैं, वह आभूषण कौन सा है ? एक शिष्य के मन में भी ऐसा प्रश्न उद्भुत हुआ था-गुरुदेव ! बताइए, 'कि भूषणाद् भूषणमस्ति ?' लोग शरीर को सुन्दर बनाने के लिए आभूषण पहनते हैं, मुझे भी शरीर की शोभा बढ़ाने हेतु एक आभूषण पहनना है । मुझे ऐसा श्रेष्ठ आभूषण बताइए, जिससे मैं सुशोभित हो उठ्। मुझे ऐसा श्रेष्ठ आभूषण बताइए, जिसे दुष्ट लोग छीन न सके, खराब न कर सकें। गुरु ने देखा कि शिष्य की आभूषण की शर्त कठोर है। परन्तु इसमें ऐसे आभूषण को प्राप्त करने की उत्कण्ठा जागी है । यही उत्तम है। गुरु ने शिष्य से कहा- "वत्स ! ऐसा आभूषण है, जिसे भरत चक्रवर्ती ने पहना था, महसती सीता ने पहना था, महासती मदनरेखा ने भी पहना था।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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