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________________ ब्रह्मचारी विभूषारहित सोहता २९७ इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, बढें ववस्से समणे तवस्सी ॥ 'आत्मशोधनार्थ श्रम करने वाला तपस्वी श्रमण अपने चित्त में स्त्रियों का ध्यान रखकर उनके रूप, लावण्य, विलास, हास, जल्पन, सांकेतिक हाव-भाव, अंगचालन या कटाक्ष को देखने का कभी प्रयत्न न करे ।' महाभारत में एक जगह वर्णन आता है कि अर्जुन ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से इन्द्र को भीति हुई कि कहीं यह मेरा राज्य और पद न छीन ले। अतः उसने रम्भा नामक अप्सरा को बुलाकर कहा"रम्भे ! जाओ किसी भी छल-बल से अर्जुन का ब्रह्मचर्य खण्डित करके उसे तपोभ्रष्ट कर डालो।" रम्भा सुसज्जित होकर अर्जुन के पास पहुंची, हाव-भाव दिखाकर बोली"प्राणनाथ ! मेरी ओर देखो ! जिसके लिए आप इतना कठोर तप कर रहे हो, वह मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ। मुझे स्वीकार करके इस जीवन को सफल बनाओ और छोड़ो इस कष्टकारक तप को । तप करके भी मुझसे श्रेष्ठ और कौन-सी चीज आप को मिलेगी ?" । अर्जुन अपने तप में मग्न था। उसने सुसज्जित रम्भा की ओर नहीं देखा, न मन में कामोत्तेजना हुई । वह रम्भा को माता के रूप में देख रहा था। रम्भा ने अपना सारा कौशल आजमा लिया, लेकिन अर्जुन उसके हाव-भाव देखकर तपस्या से नहीं डिगा । वह तो सोच रहा था कि माँ, मुझ बालक को मनाने की कोशिश कर रही है। रम्भा सब तरह के उपाय आजमाकर हार गई। वह अर्जुन को ब्रह्मचर्य से स्खलित न कर सकी। तब अन्त में, इन्द्र की सिखलाई हुई एवं विषय-वासना की गुलाम रम्भा अर्जुन के सामने नग्न होकर नृत्य करने लगी। रम्भा अप्सरा का अद्. भुत और आकर्षक रूप-सौन्दर्य था मगर अर्जुन ने न तो स्वयं शरीर-विभूषा की और न विभूषा से सुसज्जित रम्भा के रूप-सौन्दर्य को देखा । तपोभ्रष्ट और ब्रह्मचर्यभ्रष्ट करने के रम्भा के सभी अस्त्र व्यर्थ हो गए। अर्जुन को वह तिलभर भी डिगा न सकी। अर्जुन ने रम्भा से मुस्करा कर कहा-"माता ! अगर आपने इस सुन्दर शरीर से मुझे जन्म दिया होता तो मुझ में और अधिक तेज होता।" रम्भा अर्जुन से परास्त और लज्जित होकर चली गई। अर्जुन अपनी ब्रह्मचर्यनिष्ठा पर अचल रहा। बन्धुओ ! अर्जुन ने ब्रह्मचर्य रक्षा के दोहरे सिद्धान्त का पालन किया था। उसने न तो स्वयं शरीर-विभूषा की और न ही विभूषित शरीर को कामविकार की दृष्टि से देखा । इसीलिए वह ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट न हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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