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________________ ९९६ आनन्द प्रवचन : भाग १० मीरा बहन ने अपने बाल कटवा दिये और खादी की सादी साड़ी पहनने लगी। उसने आश्रम में ही गांधीजी से आजन्म अविवाहित रहने का संकल्प ले लिया। गांधीजी की सहृदयता तथा आश्रमवासियों की सहयोगवृत्ति से मीरा बहन वहाँ के वातावरण में घुल-मिल गई। महात्मा गांधी की विचारधारा के प्रति उसकी दृढ़ श्रद्धा थी, इस कारण उसके सम्मुख कोई भी भौतिक या वैषयिक आकर्षण न ठहर सका । मांसाहार उसने भारत आने से एक वर्ष पूर्व ही छोड़ दिया था । श्रम के प्रति उसकी आस्था बढ़ने लगी। भूमि पर शयन करती थी। भारत की मातृभाषा हिन्दी सीखकर गीता और वेदों का अध्ययन भी उसने शुरू कर दिया। प्रार्थना में वह किसी दिन अनुपस्थित नहीं रहती थी। सारी इच्छाओं का दमन कर मीरा बहन सेवा को ही अपना प्रमुख व्रत मानने लगी। यह था विदेशी महिला का विभूषा, टीप-टाप और आडम्बर से युक्त जीवन को छोड़कर सादगी, संयम और अनुशासनमय जीवन का स्वीकार ! विभूषा : न विकारसष्टि से करें, न देखें भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों के अन्तर्गत विभूषावर्जन गुप्ति के विषय में ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को लक्ष्य में रखकर कहा है "नो निग्गये विभूसाणुवाई हबई. विभूसावत्तिए विभूसिय सरीरे इत्थिनणस्स अभिलसणिज्जे हवइ । तओ णं तस्स इत्यिजणेणं अमिलसिज्जमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा, भेदं वा लमेज्जा, उम्मायं व पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलि पन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा।" ___'निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी विभूषानुवादी न हो । विभूषा (शृंगार-मंडनादि) की दृष्टि से शरीर को सजाने-संवारने वाला ब्रह्मचारी स्त्रीजनों के लिए प्रार्थनीय एवं आकर्षणीय बन जाता है। स्त्रियों द्वारा, कामलिप्सा की पूर्ति के लिए प्रार्थनीय ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा पैदा हो सकती है, ब्रह्मचर्य से अरुचि हो सकती है, अथवा उसे कामोन्माद भी हो सकता है, दीर्घकालिक रोगातंक भी हो सकता है, और अन्त में केवलिप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट होना भी संभव है।' ये सब खतरे कम भयंकर नहीं हैं। और अक्सर ऐसा हो भी जाता है । इसीलिए ब्रह्मचारी साधकों के लिए भगवान महावीर की दोहरी चेतावनी है कि न तो शरीर को विभूषित करो और न किसी के विभूषायुक्त शरीर को देखो। क्योंकि शृंगारित शरीर को तथा अंगोपांगों को देखोगे तो कामविकार पैदा होगा, और कामोत्तेजना पैदा होने से ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होते देर न लगेगी। जैसा कि शास्त्र में कहा है न रूवलावण्ण विलासहासं, न जंपियं इंगियपेहियं वा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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