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________________ २८६ आनन्द प्रवचन : भाग १० स्वस्थ होता है, वह चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, कैसे भी फटे-पुराने ही कपड़े क्यों न पहने हुए हो, परिश्रम और पसीने से लथपथ ही क्यों न हो, वह दीखने में सुन्दर ही लगेगा । उसका स्वाभाविक सौन्दर्य छिपा नहीं रहता। उसका भरा हुआ चेहरा, पुष्ट शरीर, चौड़ा दृढ़ वक्षस्थल, विशाल तेजस्वी ललाट, सुडौल अवयव, कपोलों की लाली, माथे की चमक, और तेज-सम्पन्न आँखें; सादी वेश-भूषा पर चढ़कर भी चमकेंगी। इसलिए ब्रह्मचारी को इस कृत्रिम विभूषा की आवश्यकता ही नहीं है, रहे अब्रह्मचारी या असंयमी व्यक्ति जो अस्वस्थ रहते हों, वे भले ही मखमल पहने हुए हों, क्रीम और पाउडर पोते हुए हों, उनके पिचके गाल, उभरी हड्डियाँ, भद्दा शरीर, धंसी आँखें इस बात की गवाही दे देंगी कि यह व्यक्ति असुन्दर है। इतना ही नहीं, शरीर-विभूषा उलटे उसका उपहास ही उड़ाएगी। ग्रीस का प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात चेहरे से कोई सुन्दर नहीं लगता था, परन्तु उसका शरीर स्वस्थ्य और सुडौल था, उसकी आत्मा में सत्य, क्षमा, संयम आदि के गुण थे, उनके कारण उसका आन्तरिक सौन्दर्य बढ़ा-चढ़ा था। उसने एक बार परमात्मा से यही प्रार्थना की थी "I pray thee, O God, that I may be beautiful within." "हे प्रभु ! मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि मैं अन्तर् से सुन्दर बनूं ।” यह आन्तरिक सौन्दर्य ही स्वाभाविक सौन्दर्य है । ब्रह्मचारी व्यक्ति चाहे साधु हो, वानप्रस्थ हो, कुमार हो या गृहस्थ; वह स्वाभाविक रूप से सुन्दर होगा। सुन्दरता के लिए उसे किसी कृत्रिम प्रसाधन की क्या आवश्यकता है ? उसका ओज-तेज सुन्दरता बनकर उसके मुखमण्डल पर दमकता रहेगा। फूल-सा खिला हुआ उसका चेहरा स्वाभाविक रूप से दूसरों की दृष्टि आकर्षित कर लेगा। सुन्दरता चमड़ी के काले-गोरे रंग में नहीं है, और न ही बाह्य वेश-भूषा या साज-सज्जा में है। उसका सम्बन्ध अन्तर से है-आत्मा में निहित ब्रह्मचर्य, संयम आदि गुणों से है। ब्रह्मचारी का सौन्दर्य उसकी आत्मा की स्वाभाविक देन है, वह संयम और प्रकृति की गोद में रहता है, जहां स्वास्थ्य और सौन्दर्य का निवास है । ब्रह्मचारी को अकृत्रिम और प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना आवश्यक है, ताकि वह स्वस्थ एवं सुन्दर रहे । असंयमी युवक के बजाय, प्राकृतिक जीवन बितानेवाला वृद्ध भी स्वाभाविक रूप से अधिक सुन्दर और आकर्षक लगता है। उस संयमी वृद्ध के चाँदी से चमकते बाल, भरे हुए अरूणाभ गाल और उभरा हुआ ललाट उन कृत्रिम सौन्दर्यजीवी युवकों के लिए ईर्ष्या का विषय बन जाता है। यही कारण है कि ब्रह्मचारी को कृत्रिम सौन्दर्य के प्रदर्शन की और उसके लिए कृत्रिम विभूषा या साज-सज्जा की आवश्यकता नहीं रहती। यदि वह कृत्रिम विभूषा करता है तो उसका आकर्षण बढ़ने के बजाय घट जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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